६०२ पूंजीवादी उत्पादन . प्रामाणिक प्रशास्त्र ने "श्रम का दाम नामक परिकल्पना रोजमर्रा के जीवन से, बिना इसकी मागे छान-धीन किये, प्रा बन्द करके उपार.ले ली और फिर बस यह प्रश्न कर गला कि यह नाम किस तरह निर्धारित होता है। शीघ्र ही उसने यह स्वीकार कर लिया कि मांग और पूर्ति सम्बंधों में वो परिवर्तन पाते रहते हैं, उनसे अन्य तमाम मालों की तरह मम के वाम के विषय में भी उसकी तबीलियों-यानी एक निश्चित मध्यमान के ऊपर-नीचे बाजार-भाव के उतार-चढ़ावों-के सिवा और कुछ नहीं मालूम होता। यदि मांग और पूर्ति का सन्तुलन हो जाता है और अन्य बातें सब ज्यों की त्यों रहती है, तो दामों का उतार-चढ़ाव बन्न हो जाता है। परन्तु तब मांग और पूर्ति से भी कोई चीज समझ में नहीं पाती। जब मांग और पूर्ति संतुलन की अवस्था में होती हैं, उस समय निर्धारित होने वाला बाम मम का स्वाभाविक दाम होता है, जो मांग और पूर्ति के सम्बंध से स्वतंत्र रूप में निर्धारित होता है। और यह बाम किस तरह निर्धारित होता है-यही तो सवाल है। या जब एक प्रषिक लम्बे काल के-जैसे एक वर्ष के- cale. Donc, toute la société actuelle, fondée sur le travail-marchandise, est dé- sormais fondée sur une license poétique, sur une expression figurée. La société veut-elle 'éliminer tous les inconvénients; qui la travaillent, eh bien! qu'elle élimine les termes malsonnant, qu'elle change de langage, et pour cela elle n'a qu'à s'adresser à l'Académie pour lui demander une nouvelle édition de son dictionnaire" ["बिक्री की चीज के रूप में श्रम एक भयानक वास्तविकता है; परन्तु उन्हें (पंधों को) उसमें कहने के एक संक्षिप्त ढंग के सिवा और कुछ दिखाई नहीं देता। इसलिये उनके अनुसार हमें यह मानकर चलना पड़ेगा कि भाजकल के इस पूरे समाज को, जो बिक्री की चीज के रूप में श्रम पर पाधारित है, मागे से कवियोचित अनियमितता पर, एक भलंकारिक शब्दावली पर प्राधारित समझना चाहिये। समाज जितनी असुविधामों से पीड़ित है, यदि वह उन सब से छुटकारा पाना चाहता है, तो, ठीक है, उसे तमाम कर्कश शब्दों से छुटकारा पा लेना चाहिये और कहने के ढंग को बदल देना चाहिये । इस सबके लिये उसे सिर्फ इतना ही करना है कि अकादमी को एक प्रावेदन-पत्र भेजकर उससे अपने शब्दकोष का एक नया संस्करण प्रकाशित करने का अनुरोध करे"] (Karl Marx, "Misere de la Philosophie" [कार्ल मास , 'दर्शन की दरिद्रता'], पृ० ३४, ३५)। जाहिर है, यदि यह मानकर चला जाये कि मूल्य का अर्थ कुछ नहीं होता, तो और भी सुविधा हो जायेगी। तब हम बिना किसी कठिनाई के प्रत्येक वस्तु को इस परिकल्पना में सम्मिलित कर सकेंगे। उदाहरण के लिये, जे० बी० से ठीक यही करते हैं। ,Valeur" ("मूल्य") क्या होता है ? उत्तर : ,Cest ce qu'une chose vaut" ("किसी चीज की कीमत उसका मूल्य होती है")। और »prix" ("दाम") क्या होता है ? उत्तर : La valeur dune chose exprimée en monnaie" (किसी चीज का मूल्य जब मुद्रा में अभिव्यक्त होता है, तब वह उसका दाम होता है")। और le travail de la terre" ("भूमि की जुताई-बुवाई") करने के लिये "une valeur" ("मूल्य") क्यों देना होता है ? "Parce quron y met un prix" ("क्योंकि हम उसके दाम लगा देते हैं")। इसलिये, मूल्य किसी चीज की कीमत को कहते है, और भूमि का "मूल्य" इसलिये होता है कि उसका मूल्य "मुद्रा में अभिव्यक्त किया जाता है"। चीजें जैसी है, वैसी क्यों है और किस तरह अस्तित्व में पायी है, इस सब का पूरा ज्ञान प्राप्त करने का यह निश्चय ही बहुत सहज तरीका है। .
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