श्रम-शक्ति के मूल्य (मोर क्रमशः दाम) का मजदूरी में रूपान्तरण ६०५ - . बाला श्रम भी मजदूरी पाने वाला लगता है। वहाँ गुलाम खुद अपने लिये जो श्रम करता है, सम्पत्ति का सम्बंध उसपर पर्वा गल देता है। यहाँ मुद्रा का सम्बंध मजबूरी लेकर मम करने वाले मजदूर के मजबूरी न पाने वाले मन को प्रांतों से छिपा देता है। इससे हम यह समझ सकते हैं कि मम-शक्ति के मूल्य तथा बाम के इस पान्तरण का, उनके इस तरह मजदूरी का या खुब श्रम के मूल्य तथा वाम का म पारण कर लेने का कितना निर्णायक महत्व होता है। यह दृश्य-स्प वास्तविक सम्बंध को प्रवृश्य कर देता है, और सब पूछिये, तो वह उस सम्बंध को ठीक उल्टा करके हमें दिलाता है। मजबूर और पूंजीपति दोनों की तमाम वैषिक धारणाएं, उत्पादन की पूंजीवादी प्रणाली से सम्बंधित तमाम रहस्यमयी बातें, स्वतंत्रता के विषय में उसकी समस्त भ्रांतियां और प्रामाणिक प्रशास्त्री अपने मत की वकालत करने के लिये जितनी पैंतरेवातियां बिताते हैं, वे सब की सब इस दृश्य-स्म पर ही भाषारित है। यदि इतिहास ने मजबूरी के रहस्य की तह तक पहुंचने में बहुत समय लगा दिया है, तो, दूसरी पोर, इस दृश्य-म्प की आवश्यकता को, उसके ralson dPetre (अस्तित्व के कारण) को, समाने से अधिक सहज काम और कोई नहीं है। पूंची पौर श्रम के बीच बो विनिमय होता है, वह शुरू में अन्य सब मालों के क्रय-विक्रय के समान ही हमारे सामने पाता है। बरोबार मुद्रा की एक निश्चित रकम देता है, विता मुद्रा से भिन्न स्वरूप की कोई वस्तु देता है। कानूनों की चेतना को इसमें अधिक से अधिक एक भौतिक अन्तर विलाई देता है, जो उसके कानूनी पर्याय का काम करने वाले इन सूत्रों में व्यक्त ghet fo: "Do ut des, do ut facias, facio ut des,facio ut facias" ("Å sufera teng कि तुम भी दे सको, में इसलिये देता हूं कि तुम बना सको, मैं इसलिये बनाता हूं कि तुम सको, में इसलिये बनाता हूं कि तुम भी बना सको")। पौर देखिये। विनिमय-मूल्य और उपयोग-मूल्य चूंकि अपने में असम्मेयं मात्राएं होती है, इसलिये "मम का मूल्य" और "श्रमका बाम" की शब्दावली "कपास का मूल्य" और "कपास का बाम" से अधिक अविवेकपूर्ण नहीं प्रतीत होती। इसके अलावा, मजदूर को अपना श्रम देने के बाद उजरत मिलती है। भुगतान के साधन का काम करती हुई, मुद्रा पेशगी दे दी गयी वस्तु के मुल्य प्रथवा बाम को मूर्त रूप देती है। इस विशिष्ट उदाहरण में वह पेशगी दे दिये गये मम के मूल्य अपना नाम को मूर्त स्म देती है। अन्तिम बात यह है कि मखदूर पूंजीपति को को उपयोग-मूल्य देता है, वह, वास्तव में, उसकी मम-शक्ति नहीं, बल्कि श्रम-शक्ति का कार्य होता है। वह किसी खास तरह का-से दर्तीगीरी, मोचीगीरी या कताई का- उपयोगी श्रम होता है। यह बात साधारण विमान की पहुंच के बाहर है कि इसके साथ-साथ यही थम मूल्य पैदा करने वाला सार्वत्रिक तत्व भी होता है और इस तरह उसमें एक ऐसा गुण होता है, यो पोर किसी माल में नहीं होता। पाइये, हम अपने को बरा उस मजदूर की स्थिति में रखकर विचार करें, जिसको, मान लीजिये, १२ घण्टे के बम के एवज में ६ घन्टे के श्रम द्वारा उत्पादित मूल्य मिलता है। मान लीजिये कि यह मूल्य ३ शिलिंग के बराबर है। इस मजदूर के लिये १२ घण्टे का उसका मम मसल में ३ शिलिंग की कम खरीदने का साधन होता है। वह पाम तौर पर जीवन निर्वाह के बिन साधनों का उपयोग करता है, उनके साथ-साथ उसकी भन-पाक्ति का मूल्य भी बदल सकता है। मह ३ शिलिंग से बढ़कर ४ शिलिंग या ३ शिलिंग से घटकर २ शिलिंग हो सकता है। या अगर उसकी मम-शक्ति का मल्य स्थिर रहता है, तो मांग और पूर्ति के बदलते हुए सम्बंगों .
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