पूंजीवादी उत्पादन . के फलस्वरूप उसके दाम में घटा-बढ़ी हो सकती है। यह बढ़कर शिलिंग हो सकता है या घटकर २ शिलिंग हो सकता है। पर मजदूर सबा १२ घन्टे का मम ही देता है। इसलिये अपने मन का मो सम-मूल्य उसे मिलता है, उसकी मात्रा में होने वाला प्रत्येक परिवर्तन उसे अनिवार्य रूप से उसके १२ घण्टे के काम के मूल्य अथवा बाम का परिवर्तन प्रतीत होता है। ऐडम स्मिथ को, जो काम के दिन को एक स्थिर मात्रा मानते थे, इस बात में गुमराह कर दिया, और वह कहने लगे कि बीवन-निर्वाह के साधनों के मूल्य में हालांकि उतार-पढ़ाप पा सकते हैं और इसलिये काम के एक ही दिन से हालांकि मजदूर को कभी अधिक और कभी कम मुद्रा मिल सकती है, परन्तु फिर भी श्रम का मूल्य स्थिर रहता है। दूसरी पोर, परा पूंजीपति की स्थिति पर विचार कीजिये। वह कम से कम मुद्रा देकर यावा से ज्यादा काम लेना चाहता है। इसलिये व्यावहारिक रूप में उसको केवल इस एक बात में दिलचस्पी होती है कि मम-शक्ति के दाम में और मम-शक्ति का कार्य को मूल्य पैदा कर देता है, उसमें कितना अन्तर है। परन्तु उपर वह सभी मालों को सस्ते से सस्ते दामों पर खरीदने की कोशिश करता है और दूसरों की प्रांतों में धूल झोंककर माल खरीदत समय मूल्य से कम वाम देने और माल बेचते समय मूल्य से अधिक वाम लेने को ही वह अपने मनाने का कारण समझता है। इसलिये वह यह कभी नहीं देख पाता कि यदि "मम का मूल्य" नाम की कोई वस्तु सचमुच होती और यदि पूंजीपति को सचमुच मम का मूल्य देना पड़ता, तो पूंजी का अस्तित्व ही असम्भव हो जाता और उसकी मुद्राहरगिल पूंजी न बन पाती। इसके अतिरिक्त, मजदूरी के उतार-चढ़ाव में भी कुछ ऐसी बातें विलाई देती हैं, जिनसे यह लगता है कि मम-शक्ति का मूल्य नहीं, बल्कि मम-शक्ति के कार्यका-स्वयं मम का- प्रदा किया जा रहा है। इन बातों को दो बड़ी भेणियों में बांटा जा सकता है: (१) काम के दिन की लम्बाई के बदलने के साथ-साथ मजदूरी का भी बदल जाना। इससे हम यह निष्कर्ष भी निकाल सकते हैं कि किसी मशीन को दिन भर के लिये किराये पर लेने की अपेक्षा कि सप्ताह भर के लिये किराये पर लेने में ज्यादा खर्च होता है, इसलिये इससे यह साबित होता है कि किराये के म में मशीन का मूल्य नहीं, बल्कि मशीन के कार्य का मूल्य दिया जाता है। (२) एक ही तरह का काम करने वाले विभिन्न मजदूरों की मजबूरी में व्यक्तिगत भेर। यह व्यक्तिगत भेद गुलामी की व्यवस्था में भी होता है, पर वहाँ हम उसकी बजह से किसी बोले में नहीं पड़ते। वहां तो बिना किसी नाग-लपेट के, मुले-माम और साफ तौर पर, जुद श्रम- शक्ति की विक्री होती है। किन्तु गुलामी की व्यवस्था में यदि मन-शक्ति प्रोसत से ज्यादा अच्छी है, तो उसका लाभ, और यदि यह प्रोसत से कम पच्छी है, तो उसकी हानि गुलाम मालिक को होती है, जबकि मजदूरी की व्यवस्था में खूब मजदूर को हानि-लाम होता है। इसका कारण यह है कि जहां मजदूर अपनी मम-शक्ति को पर बेचता है, वहां गुलाम की मम-शक्ति को कोई तीसरा व्यक्ति बेचता है। जहाँ तक बाकी बातों का सम्बंध है, "मन का मूल्य तथा वाम", या "मजदूरी" नामक दृष्य स्म में और इस रूप में व्यक्त होने वाले मौलिक सम्बंध-प्रर्वात् मम-शक्ति के मूल्य तथानाम - में बही अन्तर पाया जाता है, जो अन्य तमाम दृष्य घटनामों और उनके गुप्त सारतत्व के बीच होता है। गुल्य घटनाएं सीधे तौर पर और स्वयंस्फूर्त रंग से चिन्तन की प्रचलित प्रणालियों केस में प्रकट होती हैं। उनके गुप्त सारस्तत्व का विज्ञान के द्वारा पता लगाना परता है। प्रामाणिक प्रशास्त्र वस्तुओं के वास्तविक सम्बंध को लगभग एमेता है, परन्तु वह सचेतन डंग से उसकी स्थापना नहीं कर पाता। और जब तक वह अपनी पूंजीवादी काँगुन को उतारकर नहीं केंक देता, वह ऐसा नहीं कर सकता। काम के दिन में जो घटा-बढ़ी हो सकती है, उसका ऐडम स्मिथ ने कार्यानुसार मजदूरी की चर्चा करते हुए केवल संयोगवश कुछ पिक कर दिया है। . 1 .
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