समयानुसार मजदूरी ६०९ . . यह मुमकिन है कि मम का दाम स्थिर बना रहे या उसमें गिराव पा जाये। किसी मजदूर परिवार का मुखिया को श्रम करता है, जब उसकी मात्रा में परिवार के अन्य सदस्यों के श्रम के फलस्वरूप वृद्धि हो जाती है, तब परिवार की पाय भी इसी तरह बढ़ जाती है, हालांकि श्रम का नाम ज्यों का त्यों रहता है। इसलिये , नाम मात्र की दैनिक या साप्ताहिक मजदूरी को घटाने से अलग भी श्रम के दाम को कम करने के कुछ तरीके हैं।' एक सामान्य नियम के म में इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि यदि दैनिक भम, साप्ताहिक मम प्रादि की मात्रा पहले से निश्चित हो, तो दैनिक या साप्ताहिक मजबूरी मम के नाम पर निर्भर करती है, वो या तो श्रम-शक्ति के मूल्य के साथ घटता-बढ़ता रहता है और या भम-शक्ति के दाम तथा मूल्य में जो अन्तर होता है, उसके साथ बदलता रहता है। दूसरी ओर, यदि मम का नाम पहले से निश्चित हो, तो दैनिक या साप्ताहिक मजदूरी दैनिक या साप्ताहिक मम की मात्रा पर निर्भर करती है। समयानुसार मजदूरी मापने की इकाई, अर्थात् काम के एक घन्टे का नाम वह भागफल होता है, जो एक दिन की श्रम शक्ति के मूल्य को काम के प्रोसत दिन के घण्टों की संस्था से भाग देने पर निकलता है। मान लीजिये कि काम का दिन १२ घण्टे का है और मन-शक्ति का दैनिक मूल्य ३ शिलिंग है, बो ६ घण्टे के मम की पैदावार के मूल्य के बराबर होता है। इन परिस्थितियों में, काम के एक घण्टे का नाम होगा ३ पेन्स, और एक घण्टे में मूल्य पैदा होगा ६ पेन्स का। अब यदि मखदूर से १२ घण्टे से कम (या सप्ताह में ६ दिन से कम) काम लिया जाता है,-मिसाल के लिये, यदि उससे केवल ६ या ८ घण्टे काम लिया जाता है, तो श्रम के इस नाम के अनुसार उसे केवल २ शिलिंग या १ शिलिंग ६ पेन्स रोखाना ही . 1 - ६८, ११२।) मुख्य प्रश्न यह है कि "श्रम का दाम कैसे निर्धारित होता है।" परन्तु महज कुछ पिटी-पिटायी बातों को दुहराकर वेस्ट इस प्रश्न को टाल देते हैं। पठारहवीं सदी के प्रौद्योगिक पूंजीपति-वर्ग के उस कट्टर प्रतिनिधि ने भी यह बात महसूस की है जिसने "Essay on Trade and Commerce" ('व्यापार और व्यवसाय पर निबंध') लिखा है। इस रचना को हम अक्सर उद्धृत कर चुके हैं। परन्तु इस लेखक ने सवाल को कुछ गड़बड़ ढंग से पेश किया है। उसने लिखा है : “खाने-पीने की वस्तुओं और जीवन के लिये पावश्यक अन्य चीजों के दाम से श्रम का दाम निर्धारित नहीं होता" (दाम से उसका मतलब नाम-मान की दैनिक या साप्ताहिक मजदूरी से है), "बल्कि श्रम की मात्रा निर्धारित होती है। जीवन के लिये पावश्यक वस्तुओं के दाम को घटाकर बहुत कम कर दो, तो जाहिर है कि श्रम की माता भी उसी अनुपात में कम हो जायेगी। कारखानों के मालिक जानते है कि श्रम के दाम की नाम-माव की राशि में परिवर्तन करने के अलावा भी उसे बढ़ाने और घटाने के अनेक तरीके है।" (उप० पु०, पृ. ४८, ६११) एन० डब्लयू० सीनियर ने अपनी रचना "Three Lectures on the Rate of Wages" ['मजदूरी की दर के विषय में तीन भाषण'] (London, 1830) में वेस्ट की रचना का, बिना उनका नाम लिये हुए, उपयोग किया है। उसमें उन्होंने लिखा है : “मजदूर की दिलचसी मुख्यतया मजदूरी की रकम में होती है" (पृ. १५),-यानी, सीनियर के कवनानुसार, मजदूर की दिलचस्पी मुख्यतया उसमें होती है, वो उसके हाथ में माता है, न कि उसमें जो उसे देना पड़ता है। अर्थात् उसकी दिलचसी मजदूरी की नाम-माव की रकम में होती है, न कि श्रम की मात्रा में! . 39-45
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