पृष्ठ:कार्ल मार्क्स पूंजी १.djvu/६१३

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६१० पूंजीवादी उत्पादन . मिलेंगे। चूंकि हम जो कुछ मानकर चल रहे हैं, उसके अनुसार मजदूर को महल अपनी मन-शक्ति के मूल्य के बराबर मजदूरी रोज कमाने के लिये प्रोसतन ६ घण्टे रोजाना काम करना चाहिये और चूंकि वह काम के हर घण्टे में केवल पाषा घण्टा खुद अपने लिये और प्राधा घण्टा पूंजीपति के लिये काम करता है, इसलिये यह बात साफ है कि यदि उससे १२ घण्टे से कम काम लिया जाये, तो वह अपने लिये ६ घण्टे की पैदावार का मूल्य नहीं हासिल कर सकता। इसके पहले के प्रध्यायों में हम मजदूर से अत्यधिक काम लेने के हानिकारक परिणामों को देख चुके हैं। यहां हम यह देखते हैं कि मजदूर से अपर्याप्त समय तक काम लेने के फलस्वरूप उसको क्यों तकलीफ होती है। यदि घण्टे की मजदूरी इस तरह निश्चित की जाये कि पूंजीपति दिन भर की या पूरे सप्ताह की मजदूरी देने का जिम्मा न , बल्कि वह जितने घण्टे मजदूर से काम कराये, केवल उतने ही घण्टों की मजदूरी उसे देनी पड़े, तो श्रम का दाम मापने की इकाई के रूप में घण्टे की मजदूरी का शुरू-शुरू में जिस प्राधार पर हिसाब लगाया गया था, पूंजीपति उससे कम समय श्रम-शक्ति का दैनिक मूल्य तक मजदूर से काम ले सकता है। यह इकाई चूंकि एक निश्चित संख्या के घण्टों का काम का दिन के अनुपात से निर्धारित होती है, इसलिये जब काम के दिन में घण्टों की कोई निश्चित संख्या नहीं रहती, तब यह इकाई प्रहीन हो जाती है। सवेतन और प्रवेतन श्रम के बीच जो सम्बंध होता है, वह नष्ट हो जाता है। अब पूंजीपति मजबूर के पास वह अम-काल भी नहीं छोड़ता, जो उसके अपने जीवन-निर्वाह के लिये मावश्यक होता है, और फिर भी एक निश्चित मात्रा का अतिरिक्त मूल्य उससे निकाल लेता है। अब पूंजीपति काम की सारी नियमितता खतम कर सकता है और अपनी सुविधा, सनक और क्षणिक हित के अनुसार जब चाहे, तब मजदूर से भयानक सीमा तक प्रत्यधिक काम ले सकता है और जब चाहे, तब सापेक्ष प्रयवा निरपेक्ष रूप से काम को बन्द कर सकता है। "श्रम का सामान्य नाम" देने के बहाने प्रब वह तवनुरूप मुमावदा दिये बिना काम के दिन को असाधारण रूप से लम्बा कर सकता है। यही कारण है कि १८६० में जब लन्दन के मकान बनाने के पंधे से सम्बन्धित मजदूरों पर पूंजीपतियों ने इस तरह की घण्टे की मजदूरी लादने की कोशिश की, तो उन्होंने उनके खिलाफ सर्वया विवेक- संगत विद्रोह किया। जब कानून के द्वारा काम का दिन सीमित कर दिया जाता है, तो इस तरह की बुराई का अन्त हो जाता है, हालांकि उसका, साहिर है, काम को उस कमी पर कोई . 1 . मजदूर के काम में इस तरह की प्रसाधारण कमी का जो प्रभाव होता है, वह कानून के द्वारा अनिवार्य रूप से और पाम तौर पर काम के दिन में कमी कर देने के प्रभाव. से बिल्कुल भिन्न होता है। पहले प्रकार की कमी का काम के दिन की निरपेक्ष लम्बाई से कोई सम्बंध नहीं होता। उस प्रकार की कमी जैसे ६ घण्टे के दिन में हो सकती है, वैसे ही १५ घण्टे के दिन में भी हो सकती है। पहली सूरत में श्रम के सामान्य दाम का १५ घण्टे के काम के प्राधार पर हिसाब लगाया जाता है, दूसरी सूरत में रोजाना औसतन ६ घण्टे के काम के माधार पर हिसाब लगाया जाता है। इसलिये यदि एक सूरत में केवल घण्टे काम लिया जाये और दूसरी सूरत में केवल ३ घण्टे , तो नतीजा एक ही होता है। १