६२४ पूंजीवादी उत्पादन . . अभी तक वो कुछ बताया जा चुका है, उससे यह निष्कर्ष निकलता है कि कार्यानुसार मजदूरी ही मजबूरी का वह प है, जो उत्पादन की पूंजीवादी प्रणाली से सबसे प्रषिक मेल जाता है। यद्यपि यह मकवापि नया नहीं है,-फ्रांस और इंगलेज के मर सम्बंधी कानूनों में १४ वीं शताब्दी में ही समयानुसार मजदूरी के साथ कार्यानुसार मजदूरी का भी सरकारी तौर पर विक हो चुका है,-तवापि वह अपने लिये अपेक्षाकृत बड़ा कार्य-क्षेत्र केवल उसी काल में जीत पाता है, जिसे सचमुच हस्तनिर्माण का काल कहा जा सकता है। माधुनिक युग के तूफानी यौवन-काल में, विशेषकर १७९७ से १८१५ तक, कार्यानुसार मजदूरी ने काम के दिन की लम्बाई को बढ़ाने और समयानुसार मजदूरी को नीचे गिराने के लीवर का काम लिया। इस काल में मजबूरी में को उतार-चढ़ाव माते रहे, उनके बारे में बहुत महत्वपूर्ण सामग्री इन सरकारी stavarat forureitt: "Report and Evidence from the Select Commitee on Petitions respecting the corn Laws* ('अनाव के कानूनों के विषय में पायी हुई परखास्तों पर विचार करने के लिये नियुक्त प्रवर समिति की रिपोर्ट, गवाहियों सहित') (१८१३-१४ FT Hierdie afwdata) are "Report from the Lords'Committee, on the State of the Growth, Commerce, and Consumption of Grain, and all Laws relating thereto" ('अनाव की उपब, बाणिज्य और उपभोग सम्बंधी स्थिति तथा अनाज सम्बंधी तमाम कानूनों की स्थिति पर विचार करने के लिये नियुक्त की गयी लाई स-समिति की रिपोर्ट') (१८१४-१५ का अधिवेशन) इन रिपोटों में इसका लिखित प्रमाण मिल जाता है कि कोविन-विरोधी पुड़ के पारम्भ से ही मन का दाम लगातार गिरता जा रहा था। उदाहरण के लिये, बुनाई के उद्योग में कार्यानुसार मजदूरी इतनी ज्यादा गिर गयी थी कि हालांकि काम का दिन पहले से बहुत ज्यादा लम्बा कर दिया गया था, फिर भी दैनिक मजदूरी पहले से कम ही बैठती थी। 'सूती कपड़े की धुनाई करने वाले मजदूर की असली कमाई अब पहले से बहुत कम होती है। पहले साधारण मजदूर की तुलना में उसका पर्चा बहुत ऊंचा पा, अब उसकी मेष्ठता लगभग पूरी तरह समाप्त हो गयी है। सच तो यह है कि... निपुन और साधारण मजदूर की मजदूरी के बीच मायकल जितना कम अन्तर रह गया है, उतना पहले कभी नहीं था। कार्यानुसार मजदूरी के द्वारा मन की तीवता और विस्तार में दो वृद्धि हुई थी, उसले तिहर सर्वहाराको कितना कम लाम हमा, इसका एक उदाहरण बीवारों तवा कास्तकारों की हिमायत करने वाली एक पुस्तक से लिये गये निम्नलिखित खरण में मिलता है: "ती की पियानों में से अधिकतर U "1 . des inoccupés" ("यह अक्सर देखने में माता है कि कुछ खास वर्कशापों में, मालिकों के हाथ में जो काम होता है, उसके लिये जितने मजदूरों की आवश्यकता होती है, वे उससे ज्यादा मजदूरों को नौकर रख लेते हैं। बहुधा संभावित कार्य की भाशा में (जो सर्वषा काल्पनिक पाशा भी सिद्ध हो सकती है ) अधिक मजदूरों को नौकर रख लिया जाता है। इन मजदूरों को चूंकि कार्यानुसार मजदूरी दी जाती है, इसलिये मालिक को किसी तरह का नुकसान नहीं हो सकता, क्योंकि जो भी समय जाया होगा, उसका पूरा खमियाजा बेकार बैठे मजदूरों को VAAT SOT") I (H. Grégoir, “Les Typographes devant le Tribunal correction- nel de Bruxelles”, Bruxelles, 1865, go el) 1 “Remarks on the Commercial Policy of Great Britain" ('forca pit वाणिज्य-नीति पर कुछ टिप्पणियां'), London, 1815, पृ. ४८।
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