६४२ पूंजीवादी उत्पादन जाता है, मगर यह श्रमजीवी मजदूरी पर श्रम करने वाले मजबूर के रूप में होता है। यह अनवरत पुनरुत्पादन, मजदूर की नस्ल को कायम रखने की यह क्रिया पूंजीवादी उत्पादन की conditio sine qua non (अपरिहार्य शर्त) होती है। मजदूर दो तरह से उपभोग करता है। उत्पावन करते समय वह अपने मन के द्वारा उत्पादन के साधनों का उपभोग करता है और उनको शुरू में लगायी गयी पूंजी के मूल्य से अधिक मूल्य की पैदावार में बदल देता है। यह उसका उत्पादक उपभोग है। यह क्रिया साप ही उसकी श्रम-शक्ति के उपभोग की भी क्रिया होती है। उसकी मम शक्ति का वह पूंजीपति उपभोग करता है, जिसने भम-शक्ति को खरीब रखा है। दूसरी ओर, मजदूर को उसकी श्रम- शाक्ति के एवज में जो मुद्रा मिलती है, उसको वह जीवन-निर्वाह के साधनों में बदल गलता है। यह उसका व्यक्तिगत उपभोग है। इसलिये, मजबूर का उत्पादक उपभोग और उसका व्यक्तिगत उपभोग बिल्कुल अलग-अलग होते हैं। उत्पावक उपभोग में वह पूंजी की चालक शक्ति का काम करता है, और उसपर पूंजीपति का अधिकार होता है। व्यक्तिगत उपभोग में अपने ऊपर उसका खुब अपना अधिकार होता है, और यह उत्पादन की प्रक्रिया के क्षेत्र के बाहर अपने जीवन के लिये प्रावश्यक कुछ कार्य करता है। एक का परिणाम यह होता है कि पूंजीपति जिन्ना रहता है, दूसरे के फलस्वरूप मजदूर जिन्दा रहता है। काम के दिन पर विचार करते हुए हमने देखा था कि मजदूर को अक्सर मजबूर होकर अपने व्यक्तिगत उपभोग को उत्पादन की प्रक्रिया का एक अंग मात्र बना देना पड़ता है। ऐसी हालत में मजदूर अपनी श्रम-शक्ति को कायम रखने के हेतु जीवन के लिये पावश्यक वस्तुओं का ठीक उसी तरह उपभोग करता है, जिस तरह से भाप से चलने वाला इंजन कोयले और पानी का और पहिया तेल का उपभोग करते हैं। तब उसके उपभोग के साधन उत्पादन के किसी साधन के लिये प्रावश्यक उपभोग के साधन होते हैं, तब उसका व्यक्तिगत उपभोग प्रत्यक्ष रूप में उत्पादक उपभोग होता है। किन्तु यह एक ऐसी दुराई प्रतीत होती है, जो दुनियादी तौर पर पूंजीवादी उत्पादन के साथ नहीं जुड़ी हुई है।' अब हम एक अकेले पूंजीपति और एक अकेले मजदूर पर नहीं, बल्कि पूरे पूंजीपतिवर्ग और पूरे मजदूर वर्ग पर विचार करते हैं, यानी जब हम उत्पादन की किसी एक अलग प्रक्रिया . . . 1"यह निश्चय ही सच है कि शुरू-शुरू में किसी उद्योग के चालू होने से बहुत से गरीबों को नौकरी मिल जाती है, मगर उनकी गरीबी दूर नहीं होती; और अगर यह उद्योग कायम रहता है, तो वह बहुत से नये लोगों को गरीब बना देता है।" ("Reasons for a Limited Exportation of Wool" ऊन का सीमित निर्यात करने के कारण'], London, 1677, पृ० १६।) "प्रब काश्तकार बिल्कुल बेतुके ढंग से यह दावा करता है कि वह गरीबों को पालता-पोसता है। इसमें शक नहीं कि वह उन लोगों को गरीबी में रखता है।" ("Reasons for the Late Increase of the Poor Rates: or a Comparative View of the Prices of Labour and Provisions" ['मुहताजों की सहायता के लिये लगाये गये कर में इतनी देर के बाद वृद्धि करने के कारण ; या श्रम तथा बाने-पीने की वस्तुओं के दामों का तुलनात्मक अध्ययन'], London, 1777, पृ. ३१।) 'रोस्सी यदि सचमुच "उत्पादक उपभोग" के रहस्य को समझने में सफल हुए होते, तो वह इसके विष्ट इतने जोरों से शोर न मचाते।
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