साधारण पुनरुत्पादन ६४१ . है, जिसपर बिना सम-मूल्य दिये अधिकार कर लिया गया है, वह दूसरों का प्रवेतन श्रम बन जाती है, जो या तो मुद्रा में पार या किसी अन्य वस्तु में भौतिक रूप प्राप्त कर लेता है। हमने ४-६ अध्यायों में यह देता था कि मुद्रा को पूंजी में बदलने के लिये केवल मालों का उत्पादन और परिचलन ही काफी नहीं होता। हमने देखा था कि इसके लिये एक तरफ़ मूल्य अथवा मुद्रा के मालिक को और दूसरी तरफ मूल्य पैदा करने वाले पदार्थ के मालिक को, -एक तरफ उत्पादन और जीवन-निर्वाह के साधनों के मालिक को और दूसरी तरफ उसको, जिसके पास भम-शक्ति के सिवा और कुछ नहीं है,-प्राहक और विक्रेता के रूप में एक दूसरे के सामने खड़ा होना पड़ता है। इसलिये, असल में श्रम का श्रम की पैदावार से अलग हो जाना, वैयक्तिक श्रम-शक्ति का श्रम के लिये मावश्यक वस्तुगत परिस्थितियों से अलग हो जाना ही पूंजीवादी उत्पादन का वास्तविक पाषार और प्रस्थान-बिनु पा। लेकिन जो शुरू में केवल एक प्रस्थान-बिन्दु था, वह महब क्रिया को निरन्तरता के फलस्वरूप, केवल साधारण पुनवत्पावन द्वारा, पूंजीवादी उत्पादन, का एक अनोखा, हर बार नये सिरे से पैदा होने वाला और इस तरह एक स्थायी परिणाम बन जाता है। एक तरफ़, उत्पादन की प्रक्रिया भौतिक पन को बराबर पूंजी में, पूंजीपति के लिये और अधिक धन पैदा करने के साधनों में और विलास के साधनों में बदलती रहती है। दूसरी तरफ, मजदूर जब इस प्रक्रिया के बाहर निकलता है, तो उसकी वही बशा होती है, जो इस प्रक्रिया में प्रवेश करने के समय भी, यानी, तब भी वह दूसरों के लिये धन का स्रोत होता है, पर खुद उसके पास ऐसी कोई चीज नहीं होती, जिससे वह इस धन को अपना बना सके। उत्पावन की प्रक्रिया में प्रवेश करने के पहले ही वह अपने श्रम से हाथ धो चुका था। उसने अपनी भम-शक्ति बेच गली थी; पूंजीपति ने उसके श्रम को हस्तगत करके उसका अपनी पूंजी में समावेश कर लिया था। इसलिये उत्पादन की प्रक्रिया के दौरान में उसका श्रम जिस पैदावार में साकार होता है, उसपर भी मजदूर का कोई अधिकार नहीं होता। उत्पादन की प्रक्रिया चूंकि साथ ही वह क्रिया भी होती है, जिसके द्वारा पूंजीपति श्रम-शक्ति का उपभोग करता है, इसलिये मजबूर की पैदावार बराबर न सिर्फ मालों में, बल्कि पूंजी में स्पान्तरित होती रहती है। वह ऐसा मूल्य बनती जाती है, जो मूल्य पैदा करने वाली शक्ति को सोख लेता है; वह जीवन-निर्वाह के ऐसे साधनों का रूप धारण कर लेती है, जिनसे मजदूर का शरीर खरीद लिया जाता है। वह उत्पादन के ऐसे साधनों का रूप धारण कर लेती है, जो उल्टे उत्पादकों पर हुक्म चलाने लगते हैं। इसलिये , मजदूर लगातार भौतिक एवं वस्तुगत धन पैदा करता रहता है, परन्तु यह धन पूंजी के रूप में होता है, वह एक ऐसी परायी शक्ति के रूप में होता है, जो मजदूर को अपना तावेदार बना लेती है और उसका शोषण करती है। और पूंजीपति उतने ही लगातार ढंग से श्रम-शक्ति पैदा करता रहता है, परन्तु यह श्रम-शक्ति धन के एक वैयक्तिक सोत के रूप में होती है, जो उन वस्तुओं से अलग हो जाता है, जिनकी मदद से और जिनके रूप में ही यह बात काम में पा सकता है,-संक्षेप में, पूंजीपति लगातार श्रमजीवी को पैदा करता - . . . 1"यह उत्पादक श्रम का एक बहुत ही अनोखा गुण है। जिस किसी वस्तु का उत्पादक ढंग से उपभोग किया जाता है, वह पूंजी है, और वह उपभोग के जरिये पूंजी बनती है।" (James Mill, उप० पु०, पृ. २४२।) मगर जेम्स मिल इस "बहुत ही अनोखे गुण" की तह तक कभी न पहुंच पाये। 41-45
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