पूंजीवादी उत्पादन मालिक" कहा गया है। इसी बात को इस तरह भी कहा जा सकता है कि प्रत्येक प्रकार की वर्तमान पूंजी संचित अथवा पूंजीकृत व्याज होती है। कारण कि व्याज अतिरिक्त मूल्य का एक अंश मात्र ही होता है। अनुभाग २ - उत्तरोत्तर बढ़ते हुए पैमाने के पुनरुत्पादन के विषय में अर्थशास्त्र की ग़लत धारणा . संचय को-या अतिरिक्त मूल्य के पूंजी में पुनः रूपान्तरण की-मागे छानबीन करने के पहले हमें प्रामाणिक प्रशास्त्रियों द्वारा पैदा की गयी एक अस्पष्टता का निवारण करना पड़ेगा। पूंजीपति अतिरिक्त मूल्य का एक भाग देकर जिन मालों को खुद अपने उपभोग के लिये खरीदता है, वे उत्पादन तथा मूल्य के सृजन के काम में नहीं पाते। इसी तरह वह अपनी प्राकृतिक और सामाजिक प्रावश्यकताओं की पूर्ति के लिये जो श्रम खरीदता है, वह भी उत्पादक श्रम नहीं होता। अतिरिक्त मूल्य को पूंजी में स्मान्तरित करने के बजाय वह इन मालों को और इस मम को खरीदकर अतिरिक्त मूल्य को उल्टे पाय के रूप में खर्च कर गलता है या उसका उपभोग कर गलता है। जैसा कि हेगेल ने ठीक ही कहा है, सामन्ती काल के पुराने अभिजात वर्ग के जीवन का प्रचलित ढंग यह था कि "बो कुछ हाथ में हो, उसे खर्च कर गलो"; यह बात व्यक्तिगत नौकर-चाकर रखने के रूप में खास तौर पर प्रकट होती थी। जीवन के इस ढंग से वास्ता पड़ने पर पूंजीवादी प्रर्षशास्त्र के लिये इस सिद्धान्त की घोषणा करना अत्यन्त प्रावश्यक पा कि पूंजी का संचय करना प्रत्येक नागरिक का प्रथम कर्तव्य है। इसके लिये यह अनवरत रूप से प्रचार करना प्रावश्यक था कि जो भावमी अपनी प्राय का एक अच्छा हिस्सा अतिरिक्त उत्पादक मजदूरों को नौकर रखने पर खर्च नहीं करता और इस तरह उनके जरिये लागत से ज्यादा प्रामदनी नहीं कमाता और जो इसके बजाय अपनी सारी पाय खुब सा जाता है, वह कभी संचय नहीं कर सकता। दूसरी पोर, अर्थशास्त्रियों को जन-साधारण के उस पूर्वग्रह से भी लड़ना पड़ा, जो पूंजीवादी उत्पादन को धन-अपसंचय के साथ गड़बा देता है और जो सममता . . alla" (R. Jones, “An Introductory Lecture on Political Economy" [9170 जोन्स, 'अर्थशास्त्र के विषय में एक प्रारम्भिक भाषण'], London, 1833, पृ० १६)। 1"अतिरिक्त मूल्य या पूंजी के स्वामी" ("The Source and Remedy of the Natio- nal Difficulties. A Letter to Lord John Russell” ['rasta aforiset 2T 12 और उनका उपचार ।-लार्ड जान रसेल के नाम एक पत्र'], London, 1821)। "बचायी हुई पूंजी के प्रत्येक अंश पर लगने वाले चक्रवृद्धि ब्याज के साथ पूंजी की ऐसी वृद्धि हुई है कि संसार का वह सारा धन , जिससे कुछ पाय होती है, बहुत समय पहले से पूंजी का ब्याज बन गया है।" (लन्दन का "Economist", १९ जुलाई १८५६ ।) माजकल का कोई अर्थशास्त्री केवल अपसंचय के अर्थ में बचत शब्द का प्रयोग नहीं कर सकता; और इस संकुचित तथा अपर्याप्त कार्रवाई के मागे राष्ट्रीय धन के सम्बंध में इस शब्द के केवल उसी प्रयोग की कल्पना की जा सकती है, जिसमें जो कुछ बचाया जाता है, उसका -
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