अतिरिक्त मूल्य का पूंजी में रूपान्तरण . . किया जाता है, तब तक हस्तगतकरण की प्रणाली में सम्पूर्ण क्रान्ति हो जाने पर भी सम्पत्ति के उन अधिकारों में खरा मी अन्तर नहीं पड़ता, जो मालों के उत्पादन के अनुरूप होते हैं। चाहे हम उस समय को लें, जब पैदावार पर पैदा करने वाले का अधिकार वा और यह पैदा करने वाला सम मूल्य के साथ सम-मूल्य का विनिमय करते हुए केवल अपने मन से ही अपना धन बढ़ा सकता था, और चाहे हम उस समय को लें, जब पूंजीवाद के अन्तर्गत सामाजिक घन अधिकाधिक उन लोगों की सम्पत्ति बनता जाता है, जो लगातार और बार-बार दूसरों के प्रवेतन श्रम को हस्तगत कर लेने की स्थिति में होते हैं,-हर हालत में ये ही अधिकार कायम रहते हैं। मैले ही “स्वतंत्र" मजदूर जुद अपनी अम-शक्ति को माल की तरह बेचने लगता है, वैसे ही यह परिणाम अनिवार्य हो जाता है। किन्तु इसी समय से यह भी होता है कि मालों के उत्पादन का सामान्यकरण हो जाता है और वह उत्पादन का प्रतिनिषि रूप बन जाता है। इसी समय से ही यह होता है कि हर पैदावार शुरू से ही विक्री के लिये बनायी जाती है पौर जितना भी धन पैदा होता है, उस सब को परिचलन के क्षेत्र से गुखरना होता है। जिस समय और जिस स्थान पर मजबूरी पर किया जाने वाला श्रम, अर्थात् मजदूरी मालों के उत्पादन का प्राचार बन जाती है, केवल उस समय और उस स्थान पर ही मालों का उत्पादन पूरे समाज पर हावी हो पाता है। मगर तभी और उसी स्थिति में वह अपनी गुप्त ममतायें व्यक्त कर पाता है। यदि कोई यह कहता है कि मजदूरी के हस्तक्षेप से मालों के उत्पादन में अपमिमग हो जाता है, तो वह तो यह कहने के समान है कि यदि मालों के उत्पादन में अपमिश्रण नहीं होना है, तो उसका विकास नहीं होना चाहिये। मालों का उत्पावन अपने अन्तर्निहित नियमों के अनुसार विकास करता हुमा निस हद तक पूंजीवादी उत्पावन में परिवर्तित हो जाता है, उसी हद तक मालों के उत्पादन के सम्पत्ति के नियम भी पूंजीवावी हस्तगतकरण के नियमों में परिवर्तित हो जाते हैं।' हम यह देख चुके हैं कि साधारण पुनवत्पादन की सूरत में भी हर प्रकार की पूंनी, उसका मूल मोत चाहे कुछ भी रहा हो, संचित पूंजी में, पूंजीकृत अतिरिक्त मूल्य में, परिवर्तित हो जाती है। लेकिन उत्पादन की बाढ़ में शुरू-शुरू में लगायी गयी पूंजी प्रत्यक्ष रूप से संचित होने वाली पूंजी के मुकाबले में,-पानी उस अतिरिक्त मूल्य प्रथवा अतिरिक्त पैदावार के मुकाबले में, जो पुनः पूंची में पान्तरित कर दिया जाता है,-एक लुप्यमान मात्रा (गणित के पर्व में, magnitudo evanescens) बन जाती है। इस बात से कोई अन्तर नहीं पड़ता कि यह पूंजी जमा करने वाले के हाथ में रहकर या दूसरों के हाथों में रहकर काम करती है। इसीलिये अर्थशास्त्र में पूंजी को सामान्य रूप से ऐसा "संचित धन" (रूपान्तरित प्रतिरिक्त मूल्य प्रवरा पान्तरित प्राय) कहा गया है, "जिससे पुनः अतिरिक्त मूल्य के उत्पादन का काम लिया जाता है, और पूंजीपति को प्रशास्त्र में "अतिरिक्त मूल्य का 'इसलिये, जब भ्रूषों मालों के उत्पादन पर प्राधारित सम्पत्ति के शाश्वत नियमों को लागू करके पूंजीवादी सम्पत्ति को ख़तम कर देने का इरादा जाहिर करते हैं, तब हम यदि उनकी चतुराई को देखकर पाश्चर्यचकित रह जाते हैं, तो कोई अस्वाभाविक बात नहीं है। "पूंजी, यानी वह संचित धन , जिससे मुनाफा कमाया जाता है" (Malthus, उप० पु.)। "पूंजी...उस धन को कहते हैं, जो प्राय में से बचाकर मुनाफा कमाने के लिये इस्तेमाल किया 10
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