पूंजीवादी उत्पादन ... .... ऊपर जो बुद्धिमत्तापूर्ण मार्ग यही है कि वह मितव्ययिता से काम ले; परन्तु सभी धनी राष्ट्रों का हित इस बात में है कि गरीबों का अधिकतर भाग लगभग कभी भी बाली हाथ न बैठने पाये और फिर भी जो कुछ उसे मिले, उसे लगातार खर्च करता जाये जो लोग रोजाना भम करके अपनी जीविका कमाते हैं उनको काम करने की प्रेरणा केवल अपने प्रभाव से ही मिलती है, जिसको कुछ कम कर देना तो दूरदर्शिता है, पर बिल्कुल दूर कर देना सरासर मूलता है। इसलिये एक ही चीच है, जो श्रम करने वाले प्रादमी को मेहनती बना सकती है,- वह है मद्रा की एक परिमित मात्रा। कारण कि उसे यदि बहुत कम मात्रा में मुद्रा दी गयी, तो अपने स्वभाव के अनुसार वह या तो हतोत्साहित हो जायेगा और या विद्रोह कर उठेगा, और यदि उसे बहुत अधिक मुद्रा दे दी गयी, तो वह और काहिल बन जायेगा कुछ कहा गया है, उससे यह बात स्पष्ट है कि किसी भी ऐसे स्वतंत्र राष्ट्र में, जहां वास रखने की इजाजत नहीं है, सब से अधिक सुनिश्चित प्रकार का धन मेहनती गरीबों की विशाल संस्था के रूप में होता है। कारण कि एक तो वे समुद्री बेड़ों और सेनाओं के लिये प्रमय भण्डार का काम करते हैं और, दूसरे, उनके बिना न तो किसी प्रकार का भोग-विलास हो सकता है और न ही किसी देश की पैदावार मूल्यवान हो सकती है। समाज को" (जिसका पर्व, साहिर है, काम न करने वाले लोग ही है) "सुली बनाने के लिये और जनता को बुरी से बुरी हालत में भी संतुष्ट रखने के लिये जरूरी है कि उसकी बड़ी संख्या को गरीबी के साथ- साप बहालत में भी रखा जाये। ज्ञान हमारी इच्छाओं के प्राकार और संख्या दोनों में वृद्धि कर देता है, और पादमी जितनी कम वस्तुओं की इच्छा करता है, उसकी मावश्यकतामों को उतनी ही पासानी से पूरा किया जा सकता है।"1 मैदेवील एक ईमानदार व्यक्ति थे, और उनका दिमाग साफ़ था। पर इस समय तक वह यह नहीं समझ पाये थे कि संचय की प्रक्रिया का यंत्र स्वयं पूंजी के साथ-साथ “मेहनती गरीबों" की संख्या में, अर्थात् उन मजदूरों की संख्या में भी वृद्धि करता जाता है, जो अपनी प्रम-शक्ति को बढ़ती हुई पूंजी की प्रात्म-विस्तार करने की बढ़ती हुई शक्ति में परिणत कर गलते हैं और जो इसके फलस्वल्म अब अपनी पैदावार के साथ, जिसका मूर्त रूप पूंजीपति होते हैं, अपने अधीनता के सम्बंध को अजर-अमर बना देते हैं। प्रवीनता के इस सम्बंध की पर्चा करते हुए सर एफ० एम० ईन ने अपनी रचना 'गरीबों की हालत, या इंगलैड के श्रमजीवी वर्गों का इतिहास' में कहा है कि "हमारी परती की प्राकृतिक उपज निश्चय ही हमारे बीवन-निर्वाह के लिये पूरी तरह पर्याप्त नहीं है। हमें न तो पहनने को कपड़े मिल सकते हैं, न रहने को घर मिल सकते हैं और न ही साने को भोजन मिल सकता है, जब तक कि अतीत में मम न किया गया हो। समाज के कम से . . . 1 Bernard de Mandeville, "The Fable of the Bees" बर्दि दे मैदेवील, 'मधुमक्खियों की उपकथा'), ५ वां संस्करण, London, 1728, टिप्पणियां, पृ० २१२, २१३, ३२८ । “संयत जीवन व्यतीत करना और हमेशा रोजी के लिये जुटे रहना गरीबों के लिये विवेक-संगत सुख का" (जिससे खक का, बहुत सम्भव है, यही अर्थ है काम के दिन बहुत लम्बे हों और बहुत कम खाने-पहनने को मिले) "पौर राज्य के लिये" (अर्थात् जमींदारों, पूंजीपतियों और उनके राजनीतिक पदाधिकारियों तथा अभिकर्तामों के लिये) "समृद्धि और शक्ति का प्रत्यक्ष मार्ग है।" ("An Essay on Trade and Commerce" [ व्यापार पौर वाणिज्य पर एक निबंध'], London, 1770, पृ० ५४।)
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