पूंजीवादी संचय का सामान्य नियम ६९७ . . . जन-संख्या के तथाकषित "प्राकृतिक नियम" की तह में पूंजीवादी उत्पादन का जो नियम सचमुच काम करता है, वह केवल यह है कि पूंजी के संचय और मजदूरी की बर का सह- सम्बंध पूंजी में पान्तरित प्रवेतन श्रम और इस प्रतिरिक्त पूंजी को गतिमान बनाने के लिये पावश्यक प्रतिरिक्त सवेतन श्रम के सह-सम्बंध के सिवा और कुछ नहीं है। प्रतएव, यह दो ऐसी मात्रामों का सम्बंध नहीं है, जो एक दूसरे से स्वतंत्र है, यानी यह एक मोर पूंजी की मात्रा और दूसरी मोर ममबीबी जन-संख्या का सम्बंध नहीं है। बल्कि, अगर इसकी तह तक जाइये, तो पता चलता है कि यह उसी श्रमजीवी जन-संख्या के केवल प्रवेतन और सवेतन मन का सम्बंध है। मजदूर वर्ग को प्रवेतन मन करता है और जिसका पूंजीपति-वर्ग संचय करता जाता है, उसकी मात्रा यदि इतनी तेजी से बढ़ने लगती है कि उसको पूंजी में स्पान्तरित करने के लिये सवेतन श्रम में प्रसाधारण वृद्धि करना जरूरी हो जाता है, तो मजदूरी की दर बढ़ जाती है और अन्य बातों के ज्यों की त्यों रहते हुए प्रवेतन मम उसी अनुपात में घट जाता है। परन्तु जैसे ही वह घटते-घटते उस बिंदु पर पहुंच जाता है, जहां पूंजी का पोषण करने वाले प्रतिरिक्त मम का सामान्य मात्रा में मिलना बन्द हो जाता है, वैसे ही उल्टी किया प्रारम्भ हो जाती है तब प्राय के पहले से छोटे भाग का पूंजीकरण होने लगता है, संचय धीमा पड़ जाता है और मजदूरी की बर का ऊपर चढ़ना रुक जाता है। इसलिये, मजबूरी की बर केवल उन्हीं सीमानों के भीतर ऊपर चढ़ सकती है, जिनके भीतर न सिर्फ पूंजीवादी व्यवस्था की बुनियादें सुरक्षित रहती है, बल्कि साप ही इस व्यवस्था का उत्तरोत्तर बड़े पैमाने पर पुनरूत्पादन होता रहता है। पूंजीवादी संचय का नियम, जिसे प्रशास्त्रियों ने एक तथाकषित प्राकृतिक नियम में बदल दिया है, वास्तव में केवल इतना ही कहता है कि खुद संचय के स्वरूप के कारण बम के शोषण की मात्रा में कोई ऐसी कमी नहीं पा सकती और श्रम केवाम में कोई ऐसी वृद्धि नहीं हो सकती, जिससे पूंजीवादी सम्बंधों के उत्तरोत्तर बढ़ते हुए पैमाने पर निरन्तर पुनरुत्पादन के लिये कोई गम्भीर बतरा पैदा हो पाये। उत्पादन की एक ऐसी प्रणाली में, वहाँ भौतिक पन मजदूर के विकास की पावश्यकतामों को पूरा करने के लिये नहीं होता, बल्कि, इसके विपरीत, वहां मजदूर पहले से मौजूब मूल्यों के मात्म-विस्तार की पावश्यकताबों को पूरा करने के लिये विद्यमान होता है,-ऐसी प्रणाली में और कुछ नहीं हो सकता। जिस प्रकार धर्म के क्षेत्र में मनुष्य पर स्वयं उसके मस्तिष्क की पैदावार शासन करती है, उसी प्रकार पूंजीवादी उत्पादन में स्वयं उसके हाथ की पैदावार उसपर शासन . 1 1॥ 'प्रब यदि हम फिर अपने पहले विवेचन पर लौट पायें, जिससे यह ज्ञात हुमा था कि पूंजी स्वयं केवल मानव-श्रम का फल होती है, तो यह बात कतई समझ में नहीं पाती कि मनुष्य पर पूंजी का, बद उसकी पैदावार का माधिपत्य कायम हो सकता है और वह उसके प्राधीन बन सकता है; और चूंकि वास्तव में निर्विवाद रूप से यही बात हो गयी है। इसलिये बरबस यह सवाल दिमाग में पाता है कि मजदूर, जो पूंजी का मालिक था, क्योंकि उसने पूंजी को पैदा किया था, उसका गुलाम कैसे बन गया ?." (Von Thānen "Der isolierte Staat", भाग २, अनुभाग २, Rostock, 1863, पृ०५, ६) ठूनेन इसके लिये प्रशंसनीय है कि उन्होंने यह प्रश्न किया। परन्तु इस प्रश्न का उन्होंने जो उत्तर दिया है, वह बिल्कुल बचकाना है। . .
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