७०२ पूजीवादी उत्पादन कार्यरत पूंजी के वितरण में परिवर्तन होना प्रावश्यक होता है। इसलिये उसका कार्य-क्षेत्र सामाजिक धन की निरपेम वृद्धि से या संचय की निरपेक्ष सीमाओं से सीमित नहीं होता। इस क्रिया में तो पूंजी एक स्थान पर इस कारण एक विशाल राशि के स्म में एक हाथ में जमा हो जाती है कि दूसरे स्थान पर वह बहुत से हापों से निकल गयी है। संचय और संकेन्द्रण से बिल्कुल अलग यह केनीयकरण की क्रिया है। पूंजियों के केन्द्रीयकरण के नियमों का, या पूंजी द्वारा पूंजी के आकर्षण के नियमों का यहां पर विकास नहीं किया जा सकता। कुछ तथ्यों की पोर संकेत भर कर देना ही पर्याप्त होगा। प्रतियोगिता की लड़ाई मालों को सस्ता करके लड़ी जाती है। Caeteris paribus (अन्य बातों के समान रहते हुए) मालों का सस्तापन मम की उत्पादकता पर निर्भर करता है, और वह बुर उत्पादन के पैमाने पर निर्भर करती है। इसलिये बड़ी पूंजियां छोटी पूंजियों को हरा देती हैं। पाठक को यह भी याद होगा कि उत्पादन की पूंजीवादी प्रणाली का विकास होने पर पूंजी की उस अल्पतम मात्रा में वृद्धि हो जाती है, जो सामान्य परिस्थितियों में व्यवसाय चालू रखने के लिये प्रावश्यक होती है। इसलिये अपेक्षाकृत छोटी पूंजियां उत्पादन के प्रायः उन क्षेत्रों में घुस जाती है, जिनपर माधुनिक उद्योग केवल कहीं-कहीं या अपूर्ण ढंग से ही प्रषिकार कर पाया है। यहां परस्पर विरोधी पूंजियों की संख्या के अनुलोम अनुपात में और उनके परिमाणों के प्रतिलोम अनुपात में प्रतियोगिता चलती है। उसका फल सबा यह होता है कि बहुत से छोटे- छोटे पूंजीपति तबाह हो जाते हैं और उनकी पूनियां कुछ हद तक तो उनके विजेताओं के हाथों में चली जाती हैं और कुछ हद तक गायब हो जाती है। इसके अलावा, पूंजीवादी उत्पादन का विकास होने पर बिल्कुल नयी शक्ति का जन्म हो जाता है, वह है साल-प्रणाली। शुरू में. सण-व्यवस्था संचय के एक साधारण सहायक के रूप में चुपचाप समाज में घुस पाती है और समाज की सतह पर हर जगह छोटी या बड़ी मात्रामों में मुद्रा के संसाधनों को प्रवृश्य धागों से खींचकर अलग-अलग या सम्बड पूंजीपतियों के हाथों में इकट्ठा कर देती है। परन्तु शीघ्र ही ऋण-व्यवस्था प्रतियोगिता के संघर्ष में एक नये और जौफ़नाक हथियार का काम करने लगती है, और अन्त में तो वह अपने को पूंजियों के केन्द्रीयकरण के एक विशाल सामाजिक यंत्र में स्पान्तरित कर देती है। जिस अनुपात में पूंजीवादी उत्पादन तथा संचय का विकास होता जाता है, उसी अनुपात में केनीयकरण के दो सबसे शक्तिशाली लीबरों का-प्रतियोगिता और सास-प्रणाली का-भी विकास होता जाता है। इसके साथ-साथ संचय की प्रगति के फलस्वरूप उस सामग्री की वृद्धि हो जाती है, जिसका केन्द्रीयकरण किया जा सकता है। अर्थात् अलग-अलग पूंजियों की वृद्धि हो जाती है। उपर पूंजीवादी उत्पादन का विस्तार उन विराट प्रौद्योगिक उचमों के लिये, जिनको बड़ा करने के वास्ते यह बरी होता है कि पहले से पूंचीका केन्द्रीयकरण हो गया हो, एक मोर अगर सामाजिक मांग पैदा कर देता है, तो दूसरी पोर उनके लिये प्राविधिक साधन भी तैयार कर देता है। इसलिये पान अलग-अलग पूंजियों के पारस्परिक पाकर्षण की शक्ति और केनीयकरण की प्रवृत्ति जितनी मजबूत है, उतनी पहले कभी नहीं थी। लेकिन केनीयकरण की पिया का विस्तार . . • यहां से ("शुरू में ऋण-व्यवस्था" से) पृ. ७०४ पर “संचित हो गयी होंगी" वाक्यांश तक अंग्रेजी पाठ को और प्रतः हिन्दी पाठ को चौथे वर्मन संस्करण के अनुसार बदल दिया गया है।- सम्पा.
पृष्ठ:कार्ल मार्क्स पूंजी १.djvu/७०५
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