vos पूंजीवादी उत्पादन . जन-संख्या का यह नियम उत्पादन की पूंजीवादी प्रणाली का एक विशिष्ट नियम है, और सच तो यह है कि उत्पावन की प्रत्येक विशिष्ट ऐतिहासिक प्रणाली के जन-संस्था के अपने विशेष नियम होते हैं, जो केवल उसी प्रणाली की सीमामों के भीतर ऐतिहासिक दृष्टि से सत्य होते हैं। जन- संख्या का निरपेक नियम केवल पौषों और पशुओं पर लागू होता है, और वह भी केवल उसी हर तक, जिस हद तक कि मनुष्य ने उनके मामले में हस्तक्षेप नहीं किया है। परन्तु यदि श्रमजीवियों की एक अतिरिक्त जन-संख्या पूंजीवादी भाषार पर धन के संचय अपवा विकास की अनिवार्य उपज है, तो यह अतिरिक्त जन-संख्या उलट कर पूंजीवादी संचय का लीवर भी बन जाती है,-नहीं, बल्कि कहना चाहिये कि वह उत्पादन की पूंजी- वादी प्रणाली के अस्तित्व की एक पावश्यक शर्त बन जाती है। यह प्रतिरिक्त जन-संख्या एक प्रौद्योगिक रिजर्व सेना का रूप धारण कर लेती है, जिसपर पूंजी का ऐसा परमाधिकार होता है कि मानो स्वयं पूंजी ने ही उसे अपने खर्चे से पाल-पोसकर तैयार किया हो। जन-संख्या में सचमुच कितनी वृद्धि होती है, उसकी सीमानों से स्वतंत्र होकर यह प्रतिरिक्त जन-संख्या पूंजी के पात्म-विस्तार की बदलती हुई मावश्यकतामों के लिये मानव-सामग्री की एक ऐसी राशि का सृजन कर देती है, जिसका सदैव ही शोषण किया जा सकता है। संचय और उसके साथ श्रम की उत्पादकता का जो विकास होता है, उनके साथ-साथ पूंजी की यकायक विस्तार कर जाने . . जैसे विस्तार होता है, वैसे-वैसे चल पूंजी की तुलना में अचल पूंजी का अनुपात बढ़ता जाता है। अंग्रेजी मलमल के एक थान के उत्पादन में जो मचल पूंजी इस्तेमाल होती है, उसका परिमाण उसी प्रकार की हिन्दुस्तानी मलमल के एक थान के उत्पादन में इस्तेमाल होने वाली प्रचल पूंजी के परिमाण से कम से कम सौगुना और सम्भवतया हजार गुना बड़ा होता है, और उसमें इस्तेमाल होने वाली चल पूंजी का अनुपात सौ गुना या हजार गुना कम होता है यदि वर्ष भर की पूरी बचत मचल पूंजी में जोड़ दी जाये, तो भी उससे श्रम की मांग में the fa tet glonto" (John Barton, “Observations on the Circumstances which Influence the Condition of the Labouring Classes of Society” (TTA area, 'समाज के श्रमजीवी वर्गों की दशा को प्रभावित करने वाली परिस्थितियों के विषय में कुछ विचार'], London, 1817, पृ० १६, १७।) "जिस कारण से देश की शुद्ध प्राय बढ़ सकती है, उसी कारण से साथ ही यह भी हो सकता है कि जन-संख्या अनावश्यक बन जाये और मजदूर की हालत खराब हो जाये।" (Ricardo, उप० पु०, पृ० ४६६ ।) पूंजी की वृद्धि होने पर (श्रम की ) "मांग घटती जायेगी।" ( उप० पु०, पृ० ४८०, नोट।) “पूंजी की जो राशि श्रम के जीवन-निर्वाह के लिये इस्तेमाल होती है, वह पूंजी की कुल राशि में कोई परिवर्तन न माने पर भी घट-बढ़ सकती है यह सम्भव है कि पूंजी की प्रचुरता के बढ़ने के साथ-साथ काम पर लगे मजदूरों की संख्या में बार-बार भारी उतार-चढ़ाव माने लगें और उसके फलस्वरूप लोगों को बहुत कष्ट उठाना पड़े।" (Richard Jones, "An Introduc- tory Lecture on Pol. Econ.," [रिचर्ड जोन्स, 'पर्यशास्त्र पर एक प्रारम्भिक भाषण'], London, 1833, पृ० १३।) (श्रम की) “मांग.. r... सामान्य पूंजी के संचय के अनुपात में नहीं बढ़ेगी इसलिये राष्ट्रीय पूंजी का जो भाग पुनरुत्पादन में लगाया जाने वाला है, उसमें होने वाली प्रत्येक वृद्धि का समाज की प्रगति के साथ-साथ मजदूर की दशा पर अधिका- धिक कम प्रभाव पड़ता है।" (Ramsay, उप० पु०, पृ०.६०, ९११) ... -
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