पृष्ठ:कार्ल मार्क्स पूंजी १.djvu/७१०

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पूंजीवादी संचय का सामान्य नियम vou की मात्रा बढ़ने के साथ-साथ, उत्पादन के पैमाने का विस्तार होने तवा पूंची जिन मरों को गतिमान बनाती है, उनकी संख्या के बढ़ने के साथ-साथ, इन मजदूरों के मन की उत्पादकता में वृद्धि होने के साथ-साथ और धन के सभी जोतों की व्यापकता एवं पूर्णता में वृद्धि होने के साथ-साथ पूंची और भी बड़े पैमाने पर पहले से अधिक मजदूरों को अपनी मोर माकर्षित करने के साथ-साथ उनको पहले से ज्यादा बोर से अपने से दूर धकेलने लगती है, इसके साथ-साथ पूंजी की सांपटनिक संरचना में और उसके प्राविधिक रूप में पहले से ज्यादा तेजी के साथ परिवर्तन होने लगते हैं और उत्पादन के क्षेत्रों की एक बढ़ती हुई संख्या कमी एक साथ और कभी बारी-बारी से इस परिवर्तन की लपेट में पाने लगती है। इसलिये, श्रम करने वाली जन-संस्था पूंजी के संचय के साथ-साथ उन साधनों को भी पैदा करती जाती है, जो खुद इस जन-संख्या को तुलनात्मक दृष्टि से अनावश्यक बना देते हैं और जो उसे सापेक्ष अतिरिक्त जन-संख्या में परिणत कर देते हैं। और इन साधनों को यह सवा एक बढ़ते हुए परिमाण में पैदा करती जाती है। , बनाने के धंधे में काम करने वालों की संख्या १८५१ में ४,९४६ थी और १९६१ में ४,६८६ रह गयी थी,- अन्य कारणों के अलावा इस कमी का एक कारण यह भी था कि लोग गैस की रोशनी इस्तेमाल करने लगे थे। कंधे बनाने के धंधे में काम करने वालों की संख्या १९५१ में २,०३८ और १८६१ में १,४७८ थी। पाराकशों की तादाद १८५१ में ३०,५५२ थी और १८६१ में ३१,६४७, - यह थोड़ी सी वृद्धि लकड़ी काटने की मशीनों की संख्या में वृद्धि मा जाने के कारण हुई थी। कीलें बनाने के उद्योग में १८५१ में २६,६४० व्यक्ति काम करते थे और १८६१ में २६,१३०,- यह कमी मशीनों की प्रतियोगिता के कारण मा गयी थी। टिन और ताम्बे की खानों में काम करने वालों की संख्या १८५१ में ३१,३६० थी और १८६१ में ३२,०४१। दूसरी ओर, सूत की कताई और बुनाई के उद्योग में काम करने वालों की संख्या १८५१ में ३,७१,७७७ थी और १८६१ में ४,५६,६४६ तक पहुंच गयी थी ; कोयले की खानों में काम करने वालों की तादाद १८५१ में १,८३,३८६ थी और १८६१ में २,४६,६१३ तक पहुंच गयी थी। " १८५१ के बाद से मजदूरों की संख्या में सबसे अधिक वृद्धि भाम तौर पर उद्योग की ऐसी शाखाओं में हुई है, जिनमें अभी तक मशीनों का प्रयोग सफलतापूर्वक नहीं किया जा सकता है ।" ("Census of England and Wales for 1861" ["इंगलैण्ड और वेल्स की १८६१ की जन-गणना'], खण्ड ३, London, 1863 पृ० ३६ ।) [चौवे बर्मन संस्करण में जोड़ा गया नोटः अस्थिर पूंजी के सापेक्ष परिमाण में जो उत्तरोत्तर कमी माती जाती है और मजदूरी पर काम करने वालों के वर्ग की स्थिति पर उसका जो प्रभाव पड़ता है, उनके नियम का प्रामाणिक मत के कुछ प्रमुख प्रशास्त्रियों ने कुछ छ प्राभास तो पाया है, पर पूरी तरह समझा नहीं है। इस मामले में सबसे बड़ी सेवा जान बाटन ने की थी, हालांकि दूसरे लोगों की तरह उन्होंने भी स्थिर तया अचल और अस्थिर तथा चल पूंजी को गहुमहु कर दिया है। बार्टन ने लिखा है : "श्रम की मांग चल पूंजी की वृद्धि पर निर्भर करती है, मचल पूंजी की वृद्धि पर नहीं। यदि यह बात सच होती कि इन दो प्रकार की पूंजियों के बीच हर समय और हर परिस्थिति में एक सा अनुपात रहता है, तो निश्चय ही उससे यह निष्कर्ष निकलता कि काम पर लगे मजदूरों की संख्या राज्य के धन के अनुपात में होती है। परन्तु इस प्रकार की प्रस्थापना में तो सम्भाव्यता का प्राभास तक नहीं है। धंधों का जैसे-जैसे विकास होता है, संस्कृति का जैसे- 45