पृष्ठ:कार्ल मार्क्स पूंजी १.djvu/७१३

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७१० पूंजीवादी उत्पादन . .. इस बात से प्रकट होता है कि वह साल के विस्तार तथा संकुचन को, जो पौधोगिक पाके नियतकालिक परिवर्तनों का एक चिह्न मात्र होता है, उनका कारण समझता है। जिस तरह माकाश के नमत्र एक बार एक निश्चित प्रकार की गति में प्रा जाने के बाद सदा उसी गति को बोहराते रहते हैं, उसी तरह जब सामाजिक उत्पादन एक बार समानुसार पाने वाले विस्तार और संकुचन की इस गति में फंस जाता है, तो वह उसी को दोहराता रहता है। प्रभाव अपनी बारी पाने पर कारण बन जाते हैं, और इस पूरी पिया के, बो कि सदा अपनी प्रावश्यक परिस्थितियों का पुनवत्पादन करती रहती है, पाकास्मिक उतार-चढ़ाव नियतकालिकता का रूप पारण कर लेते हैं। अब एक बार यह नियतकालिकता सुबह हो जाती है, तब पर्यशास्त्र भी यह समझ जाता है कि सापेक्ष अतिरिक्त जन-संख्या का उत्पादन-अर्थात् पूंजी के पात्म-विस्तार की प्रोसत भावश्यकताबों के दृष्टिकोण से अतिरिक्त जन-संस्था का उत्पावन -माधुनिक उद्योग की एक पावश्यक शर्त है। एच. मेरीवेल ने, बो पहले पाक्सको में प्रशास्त्र के प्रोफेसर थे और बाद में अंग्रेसी सरकार के प्रोपनिवेशिक बपतर में कर्मचारी हो गये थे, लिला है: "मान लीजिये कि ऐसा कोई संकट पाने पर राष्ट्र प्रान्दोलित हो उता है और कुछ लाल बेकार मजदूरों से परावास के द्वारा छुटकारा पाना चाहता है। उसका क्या परिणाम होगा? उसका परिणाम यह होगा कि पहली बार श्रम की मांग के पुनः पैदा होते ही भम की कमी महसूस होने लगेगी। पुनरुत्पादन चाहे जितना तेज क्यों न हो, वयस्क श्रम का स्थान भरने में हर सूरत में एक पीढ़ी का समय गुखर जाता है। अब हमारे कारखानेदारों का मुनाफा मुल्यतया इस बात पर निर्भर करता है कि जिस समय मांग ज्यादा होती है, समृद्धि के उस बम से लाभ उठाने और कम मांग वाले व्यवधान की मति पूर्ति करने की उनमें कितनी शक्ति है। यह शक्ति उनको मशीनों और हाथ के भम से काम लेने के अधिकार से प्राप्त होती है। इसके लिये यह सही है कि उनके पास हमेशा काम करने के लिये मजदूर तैयार रहें और ये बब बहरत हो, तब अपनी कार्रवाइयों को तेज कर सकें, और मन्डी की हालत के अनुसार अब चाहें, तब फिर उनको मन्द कर सकें। इस बीच के प्रभाव में कारखानेदार सम्भवतया प्रतियोगिता की दौड़ में अपनी उस मेष्टता को कायम नहीं रख सकते, जिसपर देश के धन की नींव खड़ी है। यहां तक कि माल्यूस भी यह बात स्वीकार करते हैं कि माधुनिक उद्योग के लिये जनाषिक्य का होना आवश्यक है, हालांकि अपने संकुचित डंग के अनुसार बह जनाविषय का यह कारण बताते हैं कि ममबीबी जन-संस्था निरपेक्ष वृष्टि से बहुत ज्यादा बढ़ जाती है,- तुलनात्मक दृष्टि से अनावश्यक बनने के कारण नहीं। उन्होंने लिखा है: "मुख्यतया कारखानों और वाणिज्य पर निर्भर करने वाले देश के भमबीवी वर्ग में, विवाह के विषय में विवेकशीलता का बो प्रन्यास पाया जाता है, उससे देश को हानि पहुंच सकती है...जन-संस्था का स्वस्म ही ऐसा होता है कि किसी विशेष मांग के फलस्वरूप १६ या १८ वर्ष के पहले मन्दी में मजदूरों की संख्या को नहीं बढ़ाया जा सकता, और मुमकिन है कि बचत के द्वारा प्राय को इससे कहीं अधिक तेजी के साथ पूंजी में बदला जा सके। प्रत्येक देश में यह सम्भव है कि मन के बीवन-निवाह के कोष की मात्रा मन-संस्था की अपेक्षा अधिक 1H. Merivale, "Lectures on Colonisation and Colonies" (To Attare, 'उपनिवेशकरण तथा उपनिवेशों पर भाषण'), London, 1841 and 1842, पण १, पृ. १४६।