पूंजीवादी संचय का सामान्य नियम ७११ . तेजी से बढ़ती जाये। इस प्रकार यह प्रमाणित करने के बाद कि मजदूरों की सापेन अतिरिक्त जन-संख्या का निरन्तर प्रत्पादन पूंजीवादी संचय के लिये अत्यन्त मावश्यक है, पर्यशास्त्र में एक चिरकुमारी का प्रत्यन्त समुपयुक्त म पारण करके अपने “beau ldal ("मावर्श प्रेमी")-पूंजीपति-के मुंह से उन बेकार मजदूरों को सम्बोधन करते हुए, वो घर अतिरिक्त पूंजी का सृजन करने के कारण बेकार हो गये हैं, निम्नलिखित शम कहलवाये हैं: "उस पूंजी को बढ़ाकर, जिसके सहारे तुम्हारी परवरिश होती है, हम कारखानेर तो तुम लोगों के लिये को कुछ सम्भव है, सब कुछ कर रहे हैं, बाकी तुमको करना चाहिये, और वह यह कि अपनी संख्या को बीवन-निर्वाह के सापनों के अनुरूम कर लो। जन-संस्था की स्वाभाविक वृद्धि के फलस्वरूप भम-शक्ति की बो मात्रा पूंजीवादी उत्पादन के लिये तैयार होती रहती है, उससे पूंजीवादी उत्पादन को कदापि संतोष नहीं हो सकता। खूब खुलकर खेलने के लिये उसको एक ऐसी पोचोगिक रिसर्च सेना की बरत होती है, जो इन प्राकृतिक सीमानों से स्वतंत्र हो। अभी तक हम यह मानकर चलते रहे हैं कि अस्थिर पूंची में जो घटा-बढ़ी होती है, वह काम में लगे हुए मजदूरों की संख्या की घटा-बड़ी के पूरी तरह मनुस्म होती है। परन्तु यह सम्भव है कि पूंजी के प्रवीन काम करने वाले मजदूरों की संख्या तो ज्यों की त्यों रहे या यहां तक कि गिर भी जाये, परन्तु अस्थिर पूंजी की मात्रा फिर भी बढ़ती रहे। यह उस समय होता है, जब मजदूर व्यक्तिगत रूप से पहले से अधिक श्रम करने लगता है और इसलिये उसकी मजदूरी बढ़ जाती है, हालांकि श्रम का दाम ज्यों का त्यों रहता है या यहां तक कि गिर भी जाता है, परन्तु भन की राशि की वृद्धि की तुलना में ज्यादा पीरे-धीरे गिरता है। ऐसी हालत में अस्थिर पूंजी की वृद्धि इस बात की सूचक होती है कि पहले से अधिक मम हो रहा है, परन्तु वह इस बात की सूचक नहीं होती कि पहले से अधिक संख्या में मजदूरों से काम लिया जा रहा है। इसमें प्रत्येक पूंचीपति का परम स्वार्य होता है कि यदि लागत लगभग एक सीबती है, तो मजदूरों की एक अपेक्षाकृत बड़ी संख्या की अपेक्षा छोटी संस्था से ही एक निश्चित मात्रा का मन करा लिया जाये। जब मजदूरों की अपेक्षाकृत बड़ी संख्या से उतना ही मम कराया जाता है, तब स्थिर पूंजी का खर्चा भम की बो राशि हरकत में पाती है, उसके अनुपात में बढ़ जाता है। पर अब छोटी संख्या से उतना ही श्रम कराया जाता है, तब इस वर्षे में उससे बहुत कम वृद्धि होती है। उत्पादन का पैमाना जितना अधिक विस्तृत होता है, यह स्वार्थ उतना ही अधिक बलवान होता है। पूंजी के संचय के साथ-साथ यह भावना भी अधिकाधिक बल पकड़ती जाती है। I Malthus, "Principles of Political Economy" (माल्यूस, 'अर्थशास्त्र के सिद्धान्त'), पृ. २१५, ३१९, ३२० । इस रचना में माल्यूस ने अन्त में सिस्मोंदी की सहायता से पूंजीवादी उत्पादन की त्रिमूर्ति का प्राविष्कार किया है। वह त्रिमूर्ति है : पति- उत्पादन, भति-जन-संख्या और प्रति-उपभोग, जो three very delicate monsters, indeed (तीनों निश्चय ही बड़े विचित्र राक्षस) है। देखिये एंगेल्स की रचना "Umrisse zu einer .Kritik der Nationaldkonomle", उप० पु०, पृ. १०७ और उसके मागे पृष्ठ। Harriet Martineau, "A Manchester Strike" (हैरियेट मार्टिनो, 'मानचेस्टर की हड़ताल'), London, 1832, पृ० १०१।
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