७२४ पूंजीवादी उत्पादन .. 'लगभग बस वर्ष बाद अंग्रेजी वर्ष के पादरी टाउनसेन ने बड़ी ही पूरता का परिचय देते हुए धन की पावश्यक शर्त के रूप में गरीबी का गुणगान किया। उन्होंने लिखा: "यवि (लोगों को) कानूनी ढंग से (भम करने के लिये) वाम्य किया जाये, तो उसमें बहुत परेशानी उठानी पड़ती है, चोर-चवस्ती करनी पड़ती है, और बहुत हो-हल्ला मचता है,.. परन्तु भूल न केवल शान्तिपूर्ण और खामोश उंग के एक निरन्तर बचाव का काम करती है, बल्कि वह उद्योग और परिणम करने की सबसे अधिक स्वाभाविक प्रेरणा के रूप में लोगों से बर्दस्त उंग की मेहनत कराती है।" इसलिये, सब कुछ इस बात पर निर्भर करता है कि किसी तरह मखदूर-वर्ग के लिये भून को एक स्थायी बीच बना दिया जाये; और टाउनसेन का खयाल है कि इसके लिये जन-संख्या के सिद्धान्त ने, नो कि गरीबों में खास तौर पर सक्रिय रहता है, समुचित व्यवस्था कर दी है। उन्होंने लिखा है : " मालूम होता है कि गरीबों का किसी हद तक प्रदूरवी (Improvident) होना भी प्रकृति का ही नियम है" (गरीब इसलिये प्रदूरवी है कि वे किसी पनी के घर में नहीं पैदा हुए), "ताकि कुछ लोग हमेशा ऐसे भी हों (that there may always be some), जो समाज के सबसे नीच, सबसे गंदे और सबसे ज्यादा बिल्लत पाले कामों को पूरा करें। इससे मानव-सुस के भन्नार (the stock of human happiness) की भारी वृद्धि हो जाती है, और अधिक सुकुमार (the more delicate) व्यक्तियों को न केवल कठिन परिणम से छुटकारा मिल जाता है... बल्कि अपनी-अपनी विभिन्न प्रवृत्तियों के अनुसार वे जिन पंधों के लिये उपयुक्त होते हैं, उनको उनका निर्वाध अनुसरण करने की स्वतंत्रता मिल जाती है... संसार में भगवान तथा प्रकृति ने नो व्यवस्था कायम कर रखी है, यह (गरीबों का कानून) उसके माधुर्य एवं सौंदर्य को और उसकी समिति तथा व्यवस्था को नष्ट कर सकता है। यदि वेनिस का वह संन्यासी यह समझता था कि जिस नियति ने गरीबी को एक शाश्वत बीच "1 1 "A Dissertation on the Poor Laws. By a Well-wisher of Mankind. (The Rev. J. Toonsend) 1786" ['गरीबों के कानूनों पर एक प्रबंध । मानवता के एक शुभचिन्तक (रेवर जे. टाउनसेंड) द्वारा लिखित, १७८६'], १८१७ में लन्दन में पुनः प्रकाशित , , पृ० १५, ३६, ४१। इस "सुकुमार" पादरी की ऊपर उद्धृत की गयी रचना से तथा पुस्तिका "Journey through Spain" ('स्पेन की यात्रा') से भी माल्यूस ने अक्सर पूरे के पूरे पृष्ठ नक़ल किये है, लेकिन खुद इस पादरी ने अपने मत का अधिकांश सर जेम्स स्टीवर्ट से उधार लिया है, हालांकि उधार लेते हुए उसने उनके विचारों में हेर-फेर कर दिया है। मिसाल के लिये, स्टीवर्ट ने लिखा था कि "दास-प्रथा में" (काम न करने वालों के हित में) 'मानवता को मेहनती बनाने का तरीका था-जबर्दस्ती... तब मनुष्यों से . इसलिये जबर्दस्ती काम कराया जाता था" (यानी उनसे इस कारण दूसरों के हित में मुफ़्त काम कराया जाता था) 'कि वे दूसरों के दास ये; अब मनुष्यों को इसलिये काम करना पड़ता है" (यानी उनको इस कारण काम न करने वालों के हित में मुफ्त काम करना पड़ता है) "कि वे जरूरतों के दास होते हैं।" लेकिन यह लिखने के बाद स्टीवर्ट ने मुफ्त की जाने वाले उस मोटे पादरी की तरह इससे यह निष्कर्ष नहीं निकाला था कि मजदूरों को सदा उपवास करते रहना चाहिये। इसके विपरीत, उनकी इच्छा यह थी कि मजदूरों की जरूरतें बराबर बढ़ती जायें और उनकी जरूरतों की बढ़ती हुई संख्या से • उनको "अधिक सुकुमार' व्यक्तियों के लिये श्रम करने की प्रेरणा मिलती रहे। 11
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