पृष्ठ:कार्ल मार्क्स पूंजी १.djvu/७३

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पूंजीवादी उत्पादन ३) मूल्य का सम-मूल्य म हम यह देख चुके हैं कि जब 'क' नामक माल (कपड़ा) अपने से भिन्न प्रकार के एक माल (कोट) के उपयोग मूल्य के रूप में अपना मूल्य व्यक्त करता है, तब वह उसके साथ-साथ उस दूसरे माल पर भी मूल्य के एक विशिष्ट रूप की, अर्थात् मूल्य के सम-मूल्य रूप की, छाप अंकित कर देता है। 'कपड़ा' नामक माल अपने मूल्य धारण करने के गुण को इस तव्य के द्वारा प्रकट करता है कि कोट का उसके अपने शारीरिक रूप से भिन्न कोई मूल्य-रूप धारण किये बगैर ही कपड़े के साथ समीकरण कर दिया जाता है। यह तय कि कपड़े में मूल्य है, इस कपन द्वारा व्यक्त किया जाता है कि कोट का उसके साथ सीधा विनिमय हो सकता है। प्रतएव, जब हम यह कहते हैं कि कोई माल सम-मूल्य रूप में है, तब हम वास्तव में यह तथ्य व्यक्त करते हैं कि अन्य मालों के साथ उसका सीधा विनिमय हो सकता है। जब कोट जैसा कोई माल कपड़े जैसे किसी दूसरे माल के सम-मूल्य का काम करता है और जब इसके परिणामस्वरूप कोट में यह विशेष गुण पैदा हो जाता है कि उसका कपड़े के साथ सीवा विनिमय किया जा सकता है, तब उससे हमें यह बिल्कुल पता नहीं चलता कि दोनों का किस अनुपात में विनिमय हो सकता है। चूंकि कपड़े के मूल्य का परिमाण दिया हमा है, इसलिये यह अनुपात कोट के मूल्य पर निर्भर करता है। चाहे कोट सम-मूल्य का काम करे और कपड़ा सापेक्ष मूल्य का, या चाहे कपड़ा सम-मूल्य का काम करे और कोट सापेक्ष मूल्य का, कोट के मूल्य का परिमाण हर हालत में उसके मूल्य-रूप से स्वतंत्र इस बात से निर्धारित होता है कि उसके उत्पादन के लिये कितना प्रम-काल प्रावश्यक है। लेकिन जब कभी कोट मूल्य के समीकरण में सम-मूल्य की स्थिति में पा जाता है, तब उसका मूल्य कोई परिमाणात्मक अभिव्यंजना नहीं प्राप्त करता। इसके विपरीत, तब 'कोट' नामक माल केवल किसी वस्तु की एक निश्चित मात्रा के रूप में सामने पाता है। मिसाल के लिये, ४० गड कपड़े की कीमत -पया है? २ कोट । 'फोट' नामक माल यहाँ चूंकि सम-मूल्य की भूमिका अदा करता है, चूंकि यहां कपड़े के विपरीत 'कोट' नामक उपयोग-मूल्य मूल्य के मूर्त रूप के तौर पर सामने माता है, इसलिये कोटों की एक निश्चित संस्था कपड़े में पाये जाने वाले मूल्य की एक निश्चित मात्रा को व्यक्त करने के लिये काफी . . . . इनमें १० जिसका कहना है कि किसी वस्तु की लागत उसके मूल्य का नियमन करती है।" (J. Broadhurst, “Political Economy" [जे. बीडहर्स्ट, 'अर्थशास्त्र'], London, 1842, पृष्ठ ११ और १४) यदि यह बात सच है, तो मि० नोडहर्स्ट उतनी ही सचाई के साथ यह भी कह सकते थे कि “इन प्रभागों पर विचार कीजिये: १०/२०, १०/५०, १०/१०० इत्यादि। की संख्या में कोई परिवर्तन नहीं होता और फिर भी उसका सानुपातिक परिमाण-यानी २०, ५०, १०० संख्यामों प्रादि की तुलना में उसका परिमाण-बराबर घटता जाता है। प्रतएव, यह महान् सिद्धान्त झूठा सिद्ध हो जाता है कि किसी भी पूर्ण संख्या के परिमाण का, जैसे कि १० के परिमाण का, इस बात से “नियमन" होता है कि उसमें कितनी इकाइयां मौजूद है।" - [इस अध्याय के अनुभाग ४ में पृ. ६५-६६ के फुटनोट २ पर लेखक ने बताया है कि "पटिया किस्म के अर्थशास्त्र" से उसका क्या मतलब है।-के. ए.]