७५० पूंजीवादी उत्पादन - . . . के बजाय शिलिंग में लिली जाने लगी थी, और पाखिरी इन्दराब के बार तो पासबुक कोरे काग्रज की तरह मूल्यहीन बनकर रह गयी थी। इस परिवार को मुहताबजाने से सहायता मिलती थी, जो दिन भर में केवल एक बार बरा सा भोवन पेट में गल लेने के लिये काफी होती पी.. इसके बाद हम लोहे का काम करने वाले एक मजदूर की पत्नी से मिले, जिसका पति मुहताबजाने के प्रांगन में काम कर चुका था। भोजन के प्रभाव के कारण यह स्त्री बीमार पड़ी थी और अपने कपड़े पहने हुए एक गहे पर लेटी थी। उसने अपने ऊपर बरी का एक टुकड़ा मोड़ रसाचा, क्योंकि सभी विस्तर गिरवी रखे जा चुके थे। वो दुलियारे बच्चे उसकी देखभाल कर रहे थे, हालांकि खुद उनको भी मां के समान ही देखभाल की पावश्यकता पी। उन्नीस हफ्ते की बेकारी ने इन लोगों को यह बा कर दी थी। मां हमें अपने बीते हए दिनों का दुसमरा इतिहास सुनाती हुई इस तरह कराहती थी, जैसे उसका यह विश्वास अब बिल्कुल मर गया हो कि भविष्य में उसका दुल कमी दूर हो जायेगा... हम बाहर निकले, तो एक नौजवान बौड़ता हुमा हमारे पीछे पाया और बोला कि 'परा मेरे घर भी चलिये और बताइये कि क्या प्राप मेरी कुछ मदद कर सकते हैं।' उसके घर में उसकी बवान बीवी, वो सुन्दर बच्चों, गिरवी की दुकान के टिकटों के पोर एक जाली कमरे के सिवा और कुछ नचा।" १८६६ के संकट के बाद वो विपत्ति पायी, उसके बारे में अनुदार बल के समर्थक एक प्रखबार का निम्नलिखित उधरण बेलिये। यहां पाक को यह नहीं भूलना चाहिये कि इस उद्धरण में लन्दन के पूर्वी छोर का विक है, जो न केवल लोहे के बहाव बनाने के उपर्युक्त उद्योग का केना है, बल्कि एक तथाकषित "घरेलू उद्योग" का भी केन्द्र है, जिसके मजदूरों को हमेशा बहुत कम मजदूरी मिलती है। प्रखबार ने लिखा है: "राजषानी के एक भाग में कल एक जौफनाक दृश्य देखने को मिला । यद्यपि पूर्वी भाग के हजारों बेकारों ने अपने काले मों के साथ कोई सामूहिक बलूस नहीं निकाला था, परन्तु फिर भी मरमुग्डों की यह पारा दिल पर बहुत प्रसर गलती थी। हमें याद रखना चाहिये कि ये लोग कैसे घोर कष्ट में हैं। वे भूखों मर रहे हैं। बस इतनी ही, पर कितनी भयानक बात है। उनकी संख्या ४०,००० है.. हमारी मांखों के सामने, इस सुन्दर राजधानी के एक भाग में, और दुनिया ने अभी तक धन का जो सबसे बड़ा भन्सार देता है, जैक उसकी बगल में, उससे बिल्कुल सटे हुए एक इलाके में ४०,००० निस्सहाय, भूले नर-नारी भरे हुए हैं। प्रत्ये हजारों लोग दूसरे इलाकों में घुसते पा रहे हैं। हमेशा अपने रहने वाले ये लोग पीज-बोलकर अपनी बर्द-कहानी हमारे कानों तक पहुंचाते है, भगवान को पुकारते हैं। अपने गन्ने और तंग घरों से ये चीज-बीचकर हमसे कह रहे है कि उनको कोई काम नहीं मिलता और उनके लिये भीख मांगना भी व्यर्व है। सार्वजनिक कर देते-देते स्थानीय करवाता खुब मुहताजी की हद तक पहुंच गये हैं।"-("Standard", 5th April, 18671) अंप्रेच पूंजीपतियों में बेस्वियम को भमजीवी वर्गों का स्वर्ग मानने काएक चमन सा है, क्योंकि यहाँ "मन की स्वतंत्रता", या, बोकि एक ही बात है, "पूंची की स्वतंत्रता" को न तो मजदूर यूनियनों की निरंकुशता सीमित कर सकी है और न ही पटरी-कानून उसपर कोई प्रतिबंध लगा सके हैं। इसलिये भाइये, पोड़ा बेल्जियमवाली मजदूर के "सुनी बीवन" पर भी विचार करें। इस "सुती बीवन" के रहस्यों को जितनी अच्छी तरह स्वर्गीय एम. सुतियो बानते , शायद उतनी अच्छी तरह और कोई नहीं जानता पा। ये महासय बेल्जियम के अलवानों और न पर चलने वाली संस्थानों के इंस्पेक्टर-मनरल वा बेल्जियम के पकड़े तैयार करने वाले केन्द्रीय . . . . .
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