७५२ पूंजीवादी उत्पादन तरका . . 'इस प्रकार हम देखते हैं कि जंगी बेड़े के मल्लाह या सिपाही के भोजन की बात तो एक कंदी के मौसत स्तर तक भी बहुत कम परिवार पहुंच पाते हैं। १८४७-१८४९ में अलग- अलग जेलखानों में प्रत्येक कैदी पर जो खर्च हुमा, उसका सामान्य प्रोसत ६३ सांतीम बता है। इस रकम का यदि मजबूर के दैनिक खर्च से मुकाबला किया जाये, तो १३ सांतीम का अन्तर दिखाई पड़ता है। इसके अलावा, हम यह भी याद रखें कि यदि जेलखाने के वर्ष में प्रबंध तपा निगरानी का खर्च शामिल होता है, तो दूसरी पोर, कैदियों को रहने के स्थान का किराया नहीं देना पड़ता, जेल की दुकान से वे जो चीजें खरीदते हैं, उनका दाम उनके वर्ष में नहीं गिना माता, और क्योंकि मेलखाने में बहुत से प्रादमी. साथ रहते हैं और भोजन-सामग्री तवा उपभोग की अन्य वस्तुएं चूंकि सब थोक खरीदी जाती है, या उनका ठेका दे दिया जाता है, इसलिये कैदियों के जीवन-निर्वाह का खर्च वैसे भी पाम तौर पर बहुत कम हो जाता है...फिर यह कैसे होता है कि मजदूरों की एक बड़ी संख्या, बल्कि हम कह सकते हैं कि उनका बहुमत वियों से भी कम खर्चे में जिन्दा रहता है ? इसके लिये... मजदूर कुछ ऐसे उपायों का प्रयोग करता है, जिनके रहस्य को केवल वही जानता है। वह अपने दैनिक भोजन में कमी कर देता है। गेहूं की जगह पर मोटे अनाज की रोटी खाता है। मांस कम साता है या बिल्कुल छोड़ देता है। मक्खन और चटनी-मसालों का प्रयोग कम कर देता है या बिल्कुल बन्द कर देता है। एक या दो कोरियों से ही सन्तोष करता है, जिनमें लड़के और लड़कियां पास-पास और अक्सर एक ही चटाई पर सोते हैं। वह कपड़ों पर, धुलाई पर पैसे बचाता है। वह मर्यादा और शिष्टता की परवाह न करके पैसे बचाता है। यह इतवार को अपना दिल बहलाने के लिये कहीं बाहर नहीं जाता। संक्षेप में, यह कि मजदूर और उसके परिवार के लोग तरह-तरह के अत्यन्त कष्टदायक प्रभावों को सहन करते हैं और इस तरह अपना खर्च कम करते हैं। और जब वे एक बार कमवर्ची की इस चरम सीमा पर पहुंच जाते हैं, तो फिर यदि भोजन के दाम बरा भी बढ़ जाते हैं, या काम बन्द हो जाता है, या कोई बीमार पड़ जाता है, तो मजदूर का कष्ट और भी बढ़ जाता है और वह सम्पूर्ण तबाही के निकट पहुंच जाता है। उसके कर्वे बढ़ने लगते हैं, उसको सामान उपार नहीं मिलता, अत्यन्त प्रावश्यक कपड़े और फर्नीचर गिरवी रख दिये जाते हैं, पौर अन्त में परिवार को मुहताजों की सूची में अपना नाम दर्ज करा लेना पड़ता है।" (Ducpetlaux, उप० पु०, पृ० १५१, १५४, १५५१) सच तो यह है कि "पूंजीपतियों के इस स्वर्ग" में जीवन-निर्वाह के अत्यन्त प्रावश्यक साधनों के दामों में तनिक सा भी परिवर्तन होते ही मरने वालों की तादाद और अपराधों की संख्या में परिवर्तन हो जाता है। (देखिये Maatschappij का घोषणा-पत्र "De VlamingenVoorattr, Brussels, 1880, पृ० १५, १६) सारे बेल्जियम में कुल मिलाकर ६.३०,००० परिवार रहते हैं। सरकारी प्रांकड़ों के अनुसार, उनमें से १०,००० पनियों के परिवार हैं, जिनके नाम मतदाताओं की सूची में वर्ष हैं। ये ९०,००० परिवार = ४,५०,००० व्यक्ति । १,६०,००० परिवार शहरों और गांवों के निम्न मध्य वर्ग के हैं, जिनके अधिकतर का जीवन स्तर लगातार गिरता मोर सर्वहारा के स्तर पर पहुंचता जा रहा है। यह हिस्सा =१९.५०,००० व्यक्ति। अन्त में, ४,५०,००० परिवार मजदूर वर्ग के हैं, मो-२२,५०,००० व्यक्ति, जिनमें से प्रथम श्रेणी के परिवार वह महान सुख भोगते है, जिसका पुषपतियो ने वर्णन किया है। ४,५०,००० मजदूर-परिवारों में से २,००,००० से अधिक परिवार मुहतावों की सूची में वर्ग है। .
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