पूंजीवादी संचय का सामान्य नियम ७५३ (ब) ब्रिटेन का खेतिहर सर्वहारा . पूंजीवादी उत्पादन और संचय का पात्मविरोषी स्वरूप जितने कठोर रूप में इंगलड की खेती (जिसमें पशुपालन भी शामिल है) के विकास और खेतिहर मजदूरों के पतन की शकल में सामने पाता है, वैसा और कहीं पर सामने नहीं पाता। अंप्रेच खेतिहर मजदूर की वर्तमान बना पर विचार करने के पहले में गुजरे हुए समाने पर एक सरसरी नजर गलना चाहता हूं। इंगलेस में माधुनिक खेती १८ वीं शताब्दी के मध्य में पारम्भ हुई थी, हालांकि भू-सम्पत्ति में उसके बहुत पहले कान्ति हो गयी थी, और यह कान्ति ही उत्पादन की बदली हुई प्रणाली का प्राधार यो। मार्चर यंग सतही ढंग के विचारक है, किन्तु पर्यवेक्षण में वह बहुत सावधानी से काम लेते हैं। १७७१ के खेतिहर मजदूर की स्थिति के बारे में यदि हम उनके दिये हुए विवरण को देखें, तो हम यह पाते हैं कि १५ वीं शताब्दी की बात तो जाने दीजिये,-वह "शहर और बेहात के अंत मजदूर का स्वर्ण-युग" कहलाती है,-१४ वीं शताब्दी के अन्तिम दिनों के मुकाबले में भी, जब कि मजदूर खूब अच्छी तरह सा-पहन सकता था और कुछ पैसे जमा कर सकता था",1१७७१ के मजदूर की हालत बहुत ही पतली थी। लेकिन हमें इतने पीछे जाने की जरूरत नहीं है। १७७७ की एक बहुत उपयोगी रचना में हमें मिलता है: 'बड़ा काश्तकार उठता-उठता उसके (भद्र पुरुष के) स्तर तक पहुंच गया है, जब कि गरीब मजदूर गिरता-गिरता लगभग जमीन से लग गया है। यदि हम उसकी वर्तमान दशा का केवल चालीस वर्ष पहले की उसकी दशा से मुकाबला करें, तो उसकी शोचनीय अवस्था पूर्णतया स्पष्ट हो जायेगी ... जमींदार और काश्तकार ... बोनों ने मिलकर मजदूर को बबा रखा है।" इसके बाद इस रचना में विस्तार के साथ यह प्रमाणित किया गया है कि १७३७ पौर १७७७ के बीच खेतिहर मजदूरों की प्रसल मजदूरी में लगभग चौपाई, या २५ प्रतिशत की कमी पायी। ग. रिचर्ड प्राइस ने भी लिखा है कि "पानिक नीति ऊपरी वर्गों के अधिक अनुकूल है। और कुछ समय बाद इसका यह परिणाम हो सकता है पूरे राज्य में केवल कुलीन लोग और मिलारी, या धनी लोग और उनके गुलाम, ये दो ही वर्ग रह जायें। 66 , 118 . . 1 James E. Thorold Rogers (पोक्सफ़ोर्ड विश्वविद्यालय में अर्थशास्त्र के प्रोफेसर), "A History of Agriculture and Prices in England” ('frrive * acht tata दामों का इतिहास'), Oxford, 1866 , खण्ड १, पृ० ६६० । यह पुस्तक बड़े मध्यवसाय और परिश्रम का फल है। अभी तक उसके दो खण्ड प्रकाशित हुए हैं। उनमें केवल १२५६ से १४०० तक का ही विवरण है। दूसरे बण्ड में सिर्फ मांकड़े दिये गये हैं। इस काल के "दामों के इतिहास" पर यह पहली प्रामाणिक रचना है। "Reasons for the Late Increase of the Poor-Rates: or a comparative view of the prices of labour and provisions' ('मुहताजों की सहायता के लिये लगाये गये करों में इतनी देर के बाद वृद्धि करने के कारण, या श्रम के तथा खाने-पीने की वस्तुमों के दामों का तुलनात्मक अध्ययन'), London, 1777, पृ०५, ११। 3 Dr. Richard Price, "Observations on Reversionary Payments" (ETO feat 'प्रतिवर्ती भुगतानों के विषय में कुछ विचार'), छठा संस्करण, W. Morgan द्वारा प्रकाशित , London, 1803, बण्ड १, पृ. १५८, १५६ । प्राइस ने पृ० १५६ पर लिबा 48-45 प्राइस,
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