पूंजीवादी संचय का सामान्य नियम ७६५ जा सकता है। पर जब तक घर सावित रहता है, तब तक मजदूर को भी उसको किराये पर लेने की इजाजत रहती है। और अक्सर उसे इस बात की बहुत खुशी होती है कि वह इस टूटे-फूटे मकान को पच्छे मकान का भाड़ा देकर किराये पर ले सकता है। परन्तु इस घर की कोई मरम्मत नहीं होगी, न ही उसमें कोई सुधार किया जायेगा; हां, उसमें रहने वाला निर्धन मजदूर अपने बर्षे से कोई मरम्मत या सुधार कराना चाहे, तो करा सकता है। और जब प्रातिर घर कतई तौर पर किसी के रहने के लायक नहीं रहता,-अब वह कृषि-वास प्रथा के निम्नतम स्तर के दृष्टिकोण से भी रहने के अयोग्य हो जाता है, तब क्या चिन्ता है, एक मोपड़ा और गिरा दिया जायेगा और मुहताजों की सहायता के लिये जो कर बेना पड़ता है, वह कुछ हल्का हो जायेगा। बड़े मालिक इस तरह अपनी जमीनों पर बस्तियों को उजा-उजाड़कर करों के बोम से हल्के होते जाते हैं। उबर को कस्वा या जुला गांव सबसे मनवीक होता है, निकाले हुए मजदूर वहां रहने के लिये पहुंच जाते हैं। मैंने कहा नबवीक", पर इसका मतलब यह भी हो सकता है कि जिस फार्म पर मजदूर को रोग मेहनत-मशक्कत करनी पड़ती है, उससे यह जगह तीन या चार मील दूर हो। रोज की उस मशक्कत में तब छः या पाठ मील रोजाना पैदल चलने की मशक्कत और जुड़ जायेगी, - और इस तरह जुड़ जायेगी, जैसे कुछ नहीं हमा है, क्योंकि बिना इतना पैदल चले तो मजदूर अपनी रोटी कमा नहीं सकता। और यदि उसकी बीवी और बच्चे भी फार्म पर कुछ काम करते हैं, तो अब उनके लिये भी वही कठिनाई पैदा हो जायेगी। और फिर ऐसा भी नहीं है कि इस दूरी के कारण उसे केवल पैदल चलने की ही मशक्कत करनी पड़ती हो। सुले गांव में झोंपड़े बनाकर किराये पर उठाने वाले मुनाफालोर जमीन की छोटी-छोटी कतरनें खरीद लेते हैं, फिर उनपर सस्ते से सस्ते बड़वे बनाकर ज्यादा से ज्यादा धनी बस्ती खड़ी कर देते हैं। और इन प्रति-निकृष्ट निवास स्थानों में (जिनमें खुले बेहात के पास होने पर भी शहरों के सबसे खराब मकानों के कुछ सबसे भयानक दुर्गुण होते हैं) इंगलैड के खेतिहर मजदूरों को भर दिया जाता है .... परन्तु, दूसरी पोर, हमें भी यह नहीं समझ लेना चाहिये कि जब 1 " (बुले गांवों में, जिनमें, जाहिर है, सदा बहुत अधिक भीड़ भरी रहती है ) मजदूरों के घर पाम तौर पर लाइनों में बनाये जाते हैं, और उनका पिछवाड़ा जमीन के उस टुकड़े के छोरे से मिला रहता है, जिसको मकान बनाने वाला अपना टुकड़ा कह सकता था; और इस कारण मजदूरों के घरों में सामने से तो कुछ रोशनी और हवा मा सकती हैं, पर और किसी तरफ़ से नहीं पा सकती।" (डा • हण्टर की रिपोर्ट , उप • पु०, पृ० १३५ । ) अक्सर गांव का मोदी या बियर बेचने वाला ही मकान भी किराये पर उठाता है। ऐसी स्थिति में खेतिहर मजदूर के ऊपर काश्तकार के अलावा एक और मालिक चड्ढी गांठ लेता है। मजदूर को इस मादमी का खरीदार भी बनना पड़ता है और किरायेदार भी। 'मजदूर को जो थोड़ी सी चाय, शक्कर, माटा, साबुन, मोमबत्तियां और बियर चाहिये , वह सब उसे मुंहमांगे दामों १० शिलिंग प्रति सप्ताह की अपनी मजदूरी में से खरीदनी पड़ती है, जब कि उसमें से ४ पौण्ड सालाना किराये के कट जाते हैं ।" (उप० पु०, पृ० १३२। ) सच पूछिये, तो ये खुले गांव इंगलैण्ड के बेतिहर मजदूरों के वर्ग के जेलखाने हैं, जहां उन्हें बामशक्कत कैद काटनी पड़ती है। बहुत से झोंपड़े महज भटियारखाने हैं, जिनमें पास-पड़ोस के सारे ऐरे- गैरे पाकर ठहरते हैं और चले जाते हैं। देहाती मजदूर और उसका परिवार खराब से बराब पर...
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