खेतिहर मावादी की जमीनों का अपहरण ८१३ . . है। धेरैबन्दी (enclosures) का समर्थन करने वाले लेखक भी यह बात स्वीकार करते हैं कि इन गांवों के संकुचित हो जाने से बड़े फ्राों की इजारेवारियों में इखाना होता है, साने- पीने की वस्तुओं के दाम बढ़ जाते हैं और मावादी उजड़ जाती है... और यहां तक कि परती पड़ी हुई जमीनों की घेराबन्दी से (जिस तरह भाजकल बह की जाती है) भी गरीबों के कष्ट बहुत बढ़ जाते हैं, क्योंकि उससे मांशिक रूप में उनकी जीविका के साधन नष्ट हो जाते हैं, और उसका केवल यही नतीजा होता है कि बड़े-बड़े फ़ार्म, जिनका प्राकार पहले ही से बहुत बढ़ गया था, और भी बड़े हो जाते हैं। ग. प्राइस ने लिखा है : “जब यह जमीन चन्द बड़े- बड़े काश्तकारों के हाथों में चली जायेगी, तब इसका प्रावश्यक रूप से यह परिणाम होगा कि छोटे काश्तकार " (जिनके बारे में म० प्राइस पहले बता चुके हैं कि "छोटे-छोटे मालिकों और प्रासामियों को यह विशाल संख्या उस जमीन की उपज से, जो उसके बबाल में होती है, सार्वजनिक भूमि पर चरने वाली अपनी भेड़ों की मदद से और मुर्गियों, सुपरों प्रादि के सहारे अपना तथा अपने परिवारों का पेट पालती है और इसलिये उसे जीवन-निर्वाह के किसी सापन को खरीदने की बहुत कम जरूरत पड़ती है") "ऐसे लोगों में परिणत हो जायेंगे, जिनको अपनी जीविका के लिये दूसरों के वास्ते मेहनत करनी पड़ेगी और जिनको बहरत की हर बीन बाजार से खरीदनी पड़ेगी.. ...तब शायद मम पहले से अधिक होगा, क्योंकि लोगों के साथ पहले से ज्यादा खबर्दस्ती की जायेगी... शहरों और कारखानों की संख्या बढ़ जायेगी, क्योंकि निवासस्थान और नौकरी की तलाश में पहले से अधिक संख्या में लोग वहां पहुंचेंगे। फ्राों के प्राकार को बढ़ाने का स्वाभावतः यही परिणाम होता है। और इस राज्य में अनेक वर्षों से असल में यही चोल हो रही है। धेरेबन्दी (enclosures) के परिणामों का सारांश लेखक ने इन शब्दों में प्रस्तुत किया है : “कुल मिलाकर निचले वर्गों के लोगों की हालत लगभग हरेक दृष्टि से पहले से ज्यादा खराब हो जाती है। पहले ये जमीन के छोटे-छोटे टुकड़ों के मालिक पे; अब उनकी हैसियत मजदूरों और भाड़े के टट्ट.पों की हो जाती है, और साथ ही उनके लिये इस अवस्था में अपना जीवन-निर्वाह करना और अधिक कठिन हो जाता है। बल्कि सच तो यह है कि सामूहिक . . 1 Dr. R. Price, उप० पु०, खण्ड २, पृ० १५५ । फोस्टर, ऐडिंग्टन , केण्ट , प्राइस और जेम्स ऐण्डर्सन की रचनाओं को देखिये और चाटुकार मैक्कुलक ने अपने सूची-पत्र "The Literature of Political Economy" [अर्थशास्त्र का साहित्य'] (London, 1845) में जिस तरह की टुच्ची बकवास की है, उसके साथ इन रचनाओं की तुलना कीजिये।
- Price, उप० पु०, पृ० १४७ ।
' Price, उप० पुं०, पृ० १५६। इससे हमें प्राचीन रोम की याद आती है। वहां "धनियों ने अविभाजित भूमि के अधिकांश पर अधिकार कर लिया था। तत्कालीन परिस्थितियों को देखते हुए उनको इसका पूर्ण विश्वास था कि यह भूमि उनसे कभी वापिस नहीं ली जायेगी, और इसलिये उनकी जमीनों के पास-पास गरीबों की जो भूमि थी, उन्होंने उसको भी या तो उसके मालिकों की रजामन्दी से खरीद लिया था, या उसपर जबर्दस्ती अधिकार कर लिया था, पौर इस तरह अब वे इक्के-दुक्के खेतों के बजाय बहुत फैली हुई जागीरों को जोतते थे। फिर वे खेती और पशु-प्रजनन में दासों से काम लेते थे, क्योंकि स्वतंत्र मनुष्यों से काम कराने के लिये उनको सैनिक सेवा से हटाना पड़ता । दासों के स्वामी होने से उनका बड़ा लाभ होता था क्योंकि दासों से सेना में काम नहीं लिया जा सकता था और इसलिये. वे खुलकर प्रपनी नस्ल - . .