पृष्ठ:कार्ल मार्क्स पूंजी १.djvu/८४४

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इकत्तीसवां अध्याय प्रौद्योगिक पूंजीपति की उत्पत्ति प्रौद्योगिक' पूंजीपति की उत्पत्ति उतने धीरे-धीरे नहीं हुई, जितने धीरे-धीरे पूंजीवादी काश्तकार की उत्पत्ति हुई थी। इसमें कोई शक नहीं कि शिल्पी संघों के बहुत से छोटे-छोटे उस्तावों ने और उससे भी बड़ी संख्या में छोटे-छोटे स्वतंत्र वस्तकारों ने या यहां तक कि मजदूरी पर काम करने वाले मजदूरों ने भी अपने को छोटे-छोटे पूंजीपतियों में बदल गला था, और बाद में वे (धीरे-धीरे मजदूरी पर काम करने वाले मजदूरों के शोषण को बढ़ाकर और उसके साथ-साथ पूंजी के संचय को तेज करके) पूर्ण-प्रस्फुटित पूंजीपति बन गये थे। पूंजीवादी उत्पादन की बाल्यावस्था में भी बहुषा उसी प्रकार की घटनाएं होती थी, जिस प्रकार की घटनाएं मध्ययुगीन नगरों की बाल्यावस्था में हुमा करती थी, वहां पर वह प्रश्न कि गांवों से भागकर पाये हुए कृषि-मासों में से कौन मालिक बनेगा और कौन नौकर, अधिकतर इस बात से ते होता था कि कौन गांव से पहले और कौन बाद को भागा था। यह किया इतने धीरे-धीरे चलती थी कि १५वीं शताब्दी के अन्तिम दिनों के महान माविष्कारों ने जिस संसार-व्यापी मनी का निर्माण कर बिया पा, उसकी पावश्यकताएं उससे कदापि पूरी नहीं हो सकती थीं। परन्तु मध्य युग से पूंजी के स्पष्टतया दो भिन्न स विरासत में मिले थे, जो बहुत ही भिन्न प्रकार के पार्षिक समाज- संघटनों के भीतर परिपक्व हुए थे और जिनको उत्पादन की पूंजीवादी प्रणाली का युग प्रारम्भ होने के पहले वास्तविक पूंजी समझा जाता था। ये दो रूप सूदखोर की पूंजी पौर सौदागर की पूंजी के थे। इस समय समाज का समस्त पन पहले पूंजीपति के अधिकार में चला जाता है...वह समीदार को उसका लगान देता है, मजदूर को उसकी मजबूरी देता है, कर तथा शांश वसूल करने वालों को उनका पावना देता है और मम की वार्षिक पैदावार का एक बड़ा हिस्सा- और सच पूछिये, तो सबसे बड़ा और निरन्तर बढ़ता हुमा हिस्सा-बह खुब अपने लिये रत . कारखानेदार, जैसे जान बाइट मादि, अंग्रेज भू-स्वामियों से पूछते हैं कि “हमारे हजारों माफ़ीदार कहां चले गये ?"-लेकिन तब तुम लोग कहां से पाये हो? उन्हीं माफ़ीदारों को नष्ट करके तुम पैदा हुए हो।-ये लोग एक कदम और मागे बढ़कर यह प्रश्न क्यों नहीं करते कि स्वतंत्र बुनकर, कताई करने वाले और कारीगर कहां चले गये हैं ? 'यहाँ "बेतिहर" शब्द के व्यतिरेक में "प्रौद्योगिक" शब्द का प्रयोग किया गया है। "निरपेल" पर्व में तो काश्तकार भी उसी हद तक प्रायोगिक पूंजीपति होता है, जिस हद तक कारखानेदार होता है। .