प्रौद्योगिक पूंजीपति की उत्पत्ति ८४६ . - - व्यवस्था, सार्वजनिक ऋणों, भारी करों, संरक्षण प्रणाली, व्यापारिक युद्धों प्राविका-माधुनिक उद्योग के बाल्यकाल में विराट पैमाने पर विकास हुमा। माधुनिक उद्योग के जन्म की पूर्व- सूचना के रूप में निर्दोष व्यक्तियों की एक बड़ी भारी संख्या को हत्या की गयी। महाबी बेड़े की तरह फैक्टरियों के लिये भी लोगों को बर्दस्ती भर्ती किया जाता था। १५ वीं शताब्दी के अन्तिम तैतीस वर्षों से लेकर सर एक० एम० ईडेन के काल तक जिस खौफनाक ढंग से खेतिहर मावानी की समीने छीनी गयी थी, उसके ईन प्रम्यस्त से हो गये थे। इस क्रिया से, जिसको वह पूंजीवादी खेती की स्थापना के लिये और "खेती की जमीन तथा परागाहों की जमीन के बीच उचित अनुपात कायम करने के लिये" नितान्त "मावश्यक" समझते थे, ईडन साहब को बड़ा संतोष पा और प्रसन्नता की। लेकिन इतनी पार्षिक सूक्ष उनमें नहीं थी कि वह यह भी मान लेते कि हस्तनिर्माण-प्रणाली के शोषण को फैक्टरी-प्रणाली के शोषण में स्पान्तरित करने के लिये और पूंजी तथा श्रम शक्ति के बीच "सच्चा सम्बंध" स्थापित करने के लिये बच्चों को पुराना और उनको गुलाम बनाकर रखना भी नितान्त पावश्यक है। ईडेन ने लिखा है: “जनता को शायद इस प्रश्न की मोर ध्यान देना चाहिये कि क्या ऐसे किसी उद्योग से भी व्यक्तियों का या राष्ट्र का कल्याण हो सकता है, जिसको सफलतापूर्वक चलाने के लिये इसकी पावश्यकता पड़ती हो कि झोंपड़ों और मुहताजबानों से गरीब बच्चे पकड़कर मंगवाये जायें, रात के अधिकतर भाग में उनसे बारी-बारी से काम करवाया जाये तथा उनको उस विधाम से भी वंचित कर दिया जाये, जो वैसे तो सभी के लिये अपरिहार्य होता है, पर जिसकी बच्चों को सबसे अधिक आवश्यकता होती है, और अलग-अलग मायु की तथा विभिन्न प्रकार की मनोवृत्तियां रखने वाली स्त्रियों और पुरुषों, दोनों को एक ही स्थान पर इस तरह इकट्ठा कर दिया जाये कि केवल एक दूसरे को देख-देखकर ही उनका दुश्चरित्र और दुराचारी बन जाना अनिवार्य हो जाये। फील्डेन ने लिखा है: "ौशायर और नोटिंघमशायर की काउष्टियों में और विशेष रूप से संकाशापर में नव-प्राविकात मशीनें प्रायः ऐसी नदियों के तट पर बनी हुई बड़ी फैक्टरियों में इस्तेमाल की गयी है, जिनसे पन-पक्की चलायी जा सकती है। शहरों से बहुत दूर, इन स्थानों में यकायक हबारों मजदूरों की पावश्यकता होती थी। खास तौर पर लंकाशापर उस समय तक बहुत ही कम भावावी बाला, एक उजाड़ स्वान था; वहाँ केवल अच्छी भावानी की ही कमी थी। सबसे अधिक मांग चूंकि छोटी-छोटी, फुर्तीली उंगलियों वाले नन्हे बच्चों के लिये रहती थी, इसलिये तत्काल ही लन्दन, बिर्मिघम तथा अन्य स्थानों के सार्वजनिक मुहताणसानों से सीलतर बच्चों को मंगवा भेजने की प्रथा प्रचलित हो गयी। ७ वर्ष से लेकर १३ या १४ वर्ष तक की मायु के ऐसे हजारों छोटे-छोटे निस्सहाय बच्चों को उत्तर में काम करने के लिये भेज दिया गया। प्रथा यह पी कि इन सीलतर बच्चों का मालिक उनको रोटी-कपड़ा देता था और फैक्टरी के नवीक "सीखतरों के घरों" में उनको रखता पा। उनकी देखरेख के लिये कुछ निरीक्षक नियुक्त कर दिये जाते थे, जिनका हित इस बात में होता था कि बच्चों से स्थाना से त्याा काम में, क्योंकि वे बच्चों से जितना अधिक काम ले पाते , उनको उतनी ही अधिक तनखाह मिलती थी। बाहिर है, इसका नतीजा होता का बेरहमी . कारखानों पाले बहुत से रिस्ट्रिक्टों में पार, मेरे सवाल में, खास तौर से उस 11 . ... Eden, उप. पु., बण्ड १, पुस्तक २, मध्याय १, पृ. ४२१ । 54-45
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