उपनिवेशीकरण का माधुनिक सिद्धान्त ८६१ . का जो विरोष होता है, उसका,-बोनों बातों का यही रहस्य है। "वहां समीन बहुत सस्ती होती है और सभी मनुष्य स्वतंत्र होते हैं, वहां अब अपने लिये बमीन का एक टुकड़ा चाहने वाला हर पावमी पासानी से उसे पा सकता है, वहां न केवल पैदावार में मजदूर के हिस्से की दृष्टि से श्रम बहुत महंगा पड़ता है, बल्कि संयुक्त मम तो किसी भी नाम पर कराना कठिन होता है।" , जिस प्रकार उपनिवेशों में श्रम के लिये पावश्यक तत्वों से और उनकी जड़-परती-से प्रमी मजबूर का सम्बंध-विच्छेद नहीं होता, या अगर होता है, तो केवल कहीं-कहीं या बहुत ही छोटे पैमाने पर, उसी प्रकार वहां न तो उद्योग से खेती का सम्बंध-विच्छेव होता है और न ही किसानों के घरेलू उद्योग का विनाश हो चुका होता है। तब फिर पूंजी के लिये अन्दरूनी मम्मी कैसे तैयार होगी? "बासों और उनके मालिकों को छोड़कर, जिन्होंने विशिष्ट कामों में पूंजी और भम को एक साथ जोड़ रखा है, अमरीका की पाबाबी का ऐसा कोई भाग नहीं है, जो विशुद्ध रूप से खेतिहर हो। परती जोतने वाले स्वतंत्र अमरीकी बहुत से अन्य बंधे भी करते हैं। वे जो फर्नीचर और पौवार इस्तेमाल करते हैं, उनका एक हिस्सा प्रायः जुद बना लेते हैं। अक्सर वे अपने घर भी खुद ही बनाकर बड़े कर लेते हैं और अपने उद्योग की पैदावार को खुद ही मग्गी में लेकर जाते हैं, वह मण्डी चाहे कितनी भी दूर क्यों न हो। ये लोग कताई और बुनाई करते हैं, साबुन और मोमबत्तियां बनाते हैं और बहुत से तो जूते और कपड़े भी अपने इस्तेमाल के लिये खुद ही तैयार कर लेते हैं। अमरीका में धरती को जोतना-बोना तो बहुवा किसी लोहार, किसी पनचक्की वाले या किसी दूकानदार का गौण पंधा होता है। ऐसे अजीब लोगों के रहते हुए पूंजीपतियों के "परिवर्जन" के लिये कौनसा क्षेत्र बचता है ? पूंजीवादी उत्पादन का महान सौंदर्य इस बात में निहित है कि वह न केवल मजदूरी पर काम करने वाले व्यक्ति का लगातार मजदूरी पर काम करने वाले मजदूर के ही रूप में पुनरुत्पादन करता जाता है, बल्कि पूंजी के संचय के अनुपात सदा मजदूरी पर काम करने वालों की सापेक दृष्टि से अतिरिक्त जन-संख्या का उत्पादन करता रहता है। चुनांचे श्रम की पूर्ति और मांग का नियम सवा एक सही लीक में चलता है, मजबूरी का उतार-चढ़ाव कभी पूंजीवादी शोषण के लिये सुविधाजनक सीमानों के बाहर नहीं निकल पाता, और अन्तिम बात यह है कि पूंजीपति पर मजबूर की सामाजिक निर्भरता, जो पूंजीवादी शोषण के लिये अपरिहार्य रूप से पावश्यक होती है, सदा सुरक्षित रहती है। परनिर्भरता अथवा पराधीनता के इस स्पष्ट सम्बन्ध को प्रात्मसंतुष्ट प्रर्वशास्त्री स्वदेश में-उपनिवेश पर शासन करने वाले देश में जरूर एक ऐसे स्वतंत्र करार के सम्बंध के म में पेश कर सकता है, जो खरीदार और बेचने वाले के बीच, समान रूप से स्वतंत्र दो मालों के मालिकों के बीच, पूंजी नामक माल के मालिक और मम नामक माल के मालिक के बीच कायम होता है। लेकिन उपनिवेशों में यह सुन्दर कल्पना तुरन्त ही चकनाचूर हो जाती है। यहाँ शासक राज्य की अपेक्षा निरपेक्ष धन-संख्या बहुत तेजी से बढ़ती है, क्योंकि बहुत से मजदूर पले-पलाये बयस्क व्यक्तियों के रूप में इस दुनिया में प्रवेश करते हैं। मगर फिर भी बम की मनी में मम की सबा कमी रहती है। मन की पूर्ति मोर मांग का नियम दुकादुकड़े हो जाता है। एक पोर, पुरानी दुनिया यहां लगातार शोषण और "परिवर्जन" . 'उप. पु., बण्ड १, पृ. २४७ । 'उप० पु०, पृ० २१, २२ ।
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