पृष्ठ:कार्ल मार्क्स पूंजी १.djvu/९९

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पूंजीवादी उत्पादन प्रतएव सामाजिक उत्पादन के पूंजीवादी म के पहले उसके वो म पा चुके हैं, उनके साथ पूंजीपति-वर्ग कुछ वैसा ही व्यवहार करता है, जैसा ईसवी सन की पहली शतानियों ईसाई धर्म के लेखक और अंधकार ईसाई धर्म के पहले के धर्मों के साथ करते थे। ने समाज की प्रत्येक अवस्था के लिये सदा-सदा के लिये निश्चित कर दिया है, तो हम लाजिमी तौर पर उन गुणों को अनदेखा कर जाते हैं, जो मूल्य-रूप के और इसलिये माल- रूप के तथा उसके और विकसित रूपों के-यानी मुद्रा-रूप और पूंजी-रूप प्रादि-के विशिष्ट एवं भेदकारक गुण है। फलतः हम पाते हैं कि उन अर्थशास्त्रियों में, जो इस बात से पूरी तरह से सहमत हैं कि मूल्य के परिमाण का मापदण्ड श्रम-काल है, मुद्रा के विषय में , जो कि सार्वत्रिक सम-मूल्य का पूर्णतया विकसित रूप है, बहुत ही अजीबोगरीब और परस्पर विरोधी विचार पाये जाते हैं। यह बात उस वक्त बहुत उग्र रूप से सामने आती है, जब वे बैंकों के कारोबार पर विचार करना प्रारम्भ करते हैं, जहां मुद्रा की साधारण परिभाषाओं से तनिक भी काम नहीं चलता। इसी से एक नयी व्यापारवादी प्रणाली (गानिल्ह प्रादि ) का जन्म हुमा है, जो मूल्य में एक सामाजिक रूप के सिवा-या कहना चाहिये कि उस रूप के अमूर्त प्रेत के सिवा-और कुछ नहीं देखती।- यहां पर मैं साफ़ साफ़ और कतई तौर पर यह बता दूं कि प्रामाणिक अर्थशास्त्र से मेरा मतलब उस अर्थशास्त्र से है, जिसने डब्लयू० पेटी के समय से ही पूंजीवादी समाज में पाये जाने वाले उत्पादन के वास्तविक सम्बंधों की छानबीन की है और जो घटिया किस्म के अर्थशास्त्र की तरह नहीं है । घटिया किस्म का अर्थशास्त्र केवल सतही बातों का अध्ययन करता है। वह अनवरत उसी सामग्री की जुगाली किया करता है, जिसे वैज्ञानिक अर्थशास्त्र ने बहुत पहले प्रस्तुत कर दिया था, और इस सामग्री में वह प्रतिस्पष्ट घटनामों के ऊपर से युक्तिसंगत प्रतीत होने वाले स्पष्टीकरण की तलाश किया करता है, ताकि वह पूंजीपतियों के रोजमर्रा के इस्तेमाल में मा सके। मगर इसके अलावा उसका काम बस यही रहता है कि प्रात्म-संतुष्ट पूंजीपति-वर्ग की दुनिया के बारे में उस वर्ग के विचारों को बड़े पण्डिताऊ ढंग से सुनियोजित विचारधारा के रूप में पेश कर दे और यह दावा करे कि ये विचार चिरन्तन सत्य है। उपरोक्त पूंजीपति-वर्ग अपनी दुनिया को सभी सम्भव दुनियामों से अच्छी समझता है और बहुत ही घटिया किस्म के घिसे-पिटे विचार रखता है। 1 "Les économistes ont une singulière manière de procéder. Il n'y a pour eux que deux sortes d'institutions, celles de l'art et celles de la nature. Les institu- tions de la féodalité sont des institutions artificielles, celles de la bourgeoisie sont des institutions naturelles. Ils ressemblent en ceci aux théologiens, qui eux aussi établissent deux sortes de religions. Toute religion qui n'est pas la leur, est une invention des hommes, tandis que leur propre religion est une émanati- on de Dieu - Ainsi il y a eu de l'histoire, mais il n'y en a plus.” [“ atenfaat का तर्क-वितर्क अजीब ढंग का होता है। उनके लिये केवल दो प्रकार की ही संस्थाएं है : बनावटी संस्थाएं और प्राकृतिक संस्थाएं। सामन्ती संस्थाएं बनावटी संस्थाएं हैं., पूंजीपति-वर्ग की संस्थाएं प्राकृतिक संस्थाएं हैं। इस बात में वे धर्मशास्त्रियों से मिलते हैं। वे लोग भी दो प्रकार के धर्म मानते है। उनके अपने धर्म को छोड़कर उनकी दृष्टि में बाकी हर धर्म मनुष्यों का माविष्कार होता है, जब कि अपने धर्म के बारे में वे समझते हैं कि वह .