पृष्ठ:कार्ल मार्क्स पूंजी २.djvu/१०२

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परिपथ के तीन सूत्र १०१ . है और लगातार उत्पादन के एक दौर से दूसरे दौर में पहुंचती है। चूंकि औद्योगिक वैयक्तिक पूंजी का एक निश्चित आकार होता है, जो पूंजीपति के साधनों पर निर्भर होता है और जिसका उद्योग की प्रत्येक शाखा के लिए एक निश्चित न्यूनतम परिमाण होता है, अतः इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि उसका विभाजन निश्चित अनुपात में होना चाहिए। उपलब्ध पूंजी का परिमाण उत्पादन प्रक्रिया का आयाम निर्धारित करता है और अपनी बारी यह माल पूंजी और द्रव्य पूंजी के आयाम निर्धारित करता है, क्योंकि वे अपने कार्य उत्पादन प्रक्रिया के साथ ही साथ संपन्न करते हैं। फिर भी, जिस सहअस्तित्व द्वारा उत्पादन की निरंतरता निर्धारित होती है, वह केवल पूंजी के उन अंशों की गति के कारण संभव होता है, जिनमें वे क्रमशः अपनी विभिन्न मंजिलों से गुजरते हैं। सहअस्तित्व स्वयं केवल अनुक्रमण का परिणाम है। उदाहरण लिए, यदि मा' '-द्र' एक अंश के लिहाज़ से गतिरुद्ध हो जाये , यदि माल बेचा न जा सके , तब इस अंश का परिपथ अंतरायित हो जाता है और उसके उत्पादन साधनों द्वारा उसका कोई प्रतिस्थापन नहीं होता ; अनुवर्ती अंश , जो मा' के रूप में उत्पादन प्रक्रिया से निकलकर आते हैं, अपने पूर्ववर्तियों द्वारा अपने कार्यों के परिवर्तन को अवरुद्ध हुआ पाते हैं। यदि यह स्थिति कुछ समय तक बनी रहे, तो उत्पादन सीमित हो जाता है और समूची प्रक्रिया ठप हो जाती है। अनुक्रमण में प्रत्येक गतिरोध सहअस्तित्व में अव्यवस्था उत्पन्न करता है ; किसी भी मंजिल पर गतिरोध न्यूनाधिक मात्रा में केवल पूंजी के गतिरुद्ध अंश के समूचे परिपथ में ही नहीं, वरन कुल वैयक्तिक पूंजी के समूचे परिपथ में भी अवरोध उत्पन्न करता है। यह प्रक्रिया अपने को अब जिस रूप में प्रकट करती है, वह दौरों के अनुक्रम का है, जिससे एक दौर से पूंजी के निकलने से उसका नये दौर में संक्रमण आवश्यक वन जाता है। इसलिए प्रत्येक पृथक परिपथ का अपने प्रस्थान विंदु और प्रत्यावर्तन बिंदु की शक्ल में पूंजी का एक कार्य रूप होता है। दूसरी ओर समग्र प्रक्रिया वास्तव में तीनों परिपथों की एकान्विति होती है, जो वे विभिन्न रूप हैं, जिनके द्वारा प्रक्रिया की निरंतरता स्वयं को व्यंजित करती है। समग्र परिपथ पूंजी के प्रत्येक कार्य रूप के सामने उसके अपने विशिष्ट परिपथ की हैसियत से आता है और इनमें से प्रत्येक परिपथ समूची प्रक्रिया की निरंतरता की शर्त होता है। प्रत्येक कार्य रूप का चक्र दूसरों पर निर्भर होता है। उत्पादन की समग्र प्रक्रिया के लिए , विशेषतः सामाजिक पूंजी के लिए यह अनिवार्य पूर्वापेक्षा है कि वह साथ ही पुनरुत्पादन प्रक्रिया भी हो और इसलिए उसके तत्वों में से प्रत्येक का परिपथ भी हो। पूंजी के विविध भिन्नांश क्रमशः विविध मंज़िलों और कार्य रूपों से गुजरते हैं। इसके फलस्वरूप प्रत्येक कार्य रूप दूसरों के साथ-साथ एक ही समय अपने परिपथ से भी गुज़रता है, यद्यपि पूंजी का एक भिन्नांश सदैव उसमें व्यंजित होता है। पूंजी का एक निरंतर परिवर्तित , निरंतर पुनरुत्पादित भाग माल पूंजी को हैसियत से, जो द्रव्य में वदलती है ; दूसरा भाग द्रव्य पूंजी की हैसियत से, जो उत्पादक पूंजी में रूपांतरित होती है ; और तीसरा भाग उत्पादक पूंजी की हैसियत से , जो माल पूंजी में बदलती है , विद्यमान होता है। इन्हीं तीनों दौरों से गुजरते हुए समग्र पूंजी जो परिपथ वनाती है, उससे इन तीनों रूपों की निरंतर विद्यमानता संभव होती है। अतः पूंजी अपनी समग्रता में, स्थानिक रूप में एक ही समय अपने विभिन्न दौरों में साथ- साथ विद्यमान होती है। किंतु प्रत्येक भाग एक दौर से , एक कार्य रूप से निरंतर और क्रमशः अगले दौर और अगले कार्य रूप में संक्रमित होता रहता है और इस प्रकार वारी-बारी से उन सभी में कार्यशील होता है। अतः उसके रूप अस्थायी होते हैं और उनके अनुक्रमण द्वारा उनकी