पृष्ठ:कार्ल मार्क्स पूंजी २.djvu/२३१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

२३० पूंजी का प्रावत होता है, अध्ययन करते हुए स्वयं इस रूपांतरण पर ही नहीं, जिस वाज़ार में उत्पाद वेचा जाता है, उसके फ़ासले के अनुसार जितने समय में द्रव्य वापस आता है, उस पर ही विचार नहीं किया जाना चाहिए। पेशगी पूंजी के उस भाग की राशि पर भी विचार करना चाहिए और खासकर करना चाहिए, जिसे सदा द्रव्य रूप में और द्रव्य पूंजी की अवस्था में उपलभ्य रहना चाहिए। सारी सट्टेबाजी दरकिनार, उत्पादक पूर्ति के रूप में जो वस्तुएं सदा सुलभ रहनी चाहिए, उनकी खरीद का परिमाण इस पूर्ति के नवीकरण के समय पर , अतः उन परिस्थितियों पर निर्भर होता है, जो स्वयं अपनी वारी में वाज़ार की परिस्थितियों पर निर्भर होती हैं और जो इस कारण विभिन्न कच्ची सामग्रियों के लिए भिन्न-भिन्न होती हैं। इन प्रसंगों में समय-समय पर द्रव्य की कुछ बड़ी ही राशि और इकमुश्त पेशगी देनी होती है। वह कमोवेश जल्दी वापस आती है, लेकिन पूंजी के आवर्त के अनुसार हमेशा किस्तों में। उसका एक भाग , यानी मज- दूरी में पुनःरूपांतरित भाग उसी प्रकार लगातार थोड़े-थोड़े समय पर फिर ख़र्च होता रहता है। लेकिन दूसरा भाग, यानी वह भाग , जो कच्चे माल , वगैरह में फिर बदला जायेगा, क्रय अथवा भुगतान की आरक्षित निधि के रूप में कुछ लंबी ही अवधि के लिए संग्रहीत होगा। अतः वह द्रव्य पूंजी के रूप में विद्यमान होता है, यद्यपि जिस परिमाण में वह विद्यमान होता है, वह खुद बदलता रहता है। हम अगले अध्याय में देखेंगे कि उत्पादन प्रक्रिया से अथवा परिचलन प्रक्रिया से जो अन्य परिस्थितियां उत्पन्न होती हैं, उनसे यह आवश्यक हो जाता है कि पेशगी पूंजी का एक निश्चित भाग द्रव्य रूप में सुलभ रहे। सामान्यतः यह बात ध्यान देने योग्य है कि अर्थशास्त्री अक्सर यह भूल जाया करते हैं कि किसी व्यवसाय के लिए जो पूंजी आवश्यक होती है, उसका एक भाग द्रव्य पूंजी , उत्पादक पूंजी और माल पूंजी- क्रमशः इन तीन मंज़िलों से गुज़रता है। इतना ही नहीं, वे यह भी भूल जाया करते हैं कि उसके विभिन्न भागों में ये रूप निरंतर और एक ही समय विद्यमान होते हैं, यद्यपि इन भागों के सापेक्ष परिमाण सारे समय बदलते रहते हैं। ख़ास तौर से जो भाग सदा द्रव्य पूंजी के रूप में उपलभ्य रहता है, अर्थशास्त्री उसे ही भुला देते हैं, यद्यपि यही तथ्य वूर्जुआ अर्थतंत्र को समझने के लिए सर्वाधिक आवश्यक है और फलतः जो अपने महत्व को व्यवहार में भी जताता है। 3 3