भूमिका २७ - हैं और 'पूंजी' के इस दूसरे खंड के तीसरे भाग में इस सव को निश्चित रूप से सुलटा दिया गया है। उनका किराया सिद्धान्त अव तक एकमात्र उन्हीं की निधि वना हुआ है और जव तक मार्क्स को वह पाण्डुलिपि प्रकाशित नहीं होती, जिसमें उसकी आलोचना की गयी है, वह निर्विघ्न पड़ा रह सकता है। अन्ततः प्रशा के पुराने भूस्वामित्व को पूंजी के उत्पीड़न से मुक्त करने के लिए दिये उनके सुझाव भी पूरी तरह यूटोपियाई हैं। इस सम्बन्ध में केवल एक व्यावहारिक प्रश्न सामने प्राया था, जिसे इन सुझावों में नज़रंदाज़ किया गया है और वह था पुराना प्रशाई भूसामंत कर्ज में पड़े विना कैसे २० हजार मार्क सालाना कमाकर ३० हजार मार्क सालाना खर्च कर सकता है? १८३० के आसपास वेशी मूल्य के सिद्धान्त से टकराकर रिकार्डो धारा की नैया डूब गयी। जिस समस्या को यह हल नहीं कर पायी, वह इसके बाद आने बाजारू अर्थशास्त्र के लिए तो और भी असमाधेय रही। इसे असफल करनेवाले दो कारक थे : १. श्रम मूल्य का मापदण्ड है। फिर भी पूंजी से विनिमय करते हुए सजीव श्रम का मूल्य उस मूर्त श्रम से कम होता है, जिससे उसका विनिमय होता है। मजदूरी , सजीव श्रम की एक निश्चित मात्रा का मूल्य , सजीव श्रम की उसी मात्रा द्वारा उत्पादित वस्तु या उत्पाद का जो मूल्य होता है अथवा जिसमें यह श्रम सन्निहित होता है, उससे हमेशा कम होती है। प्रश्न इस रूप प्रस्तुत किया जाये, तो सचमुच उसका समाधान हो ही नहीं सकता। मार्क्स ने उसे सही ढंग से प्रस्तुत किया था, और इस प्रकार उसका समाधान भी पेश कर दिया था। यह श्रम नहीं है, जिसका मूल्य होता है। श्रम एक तरह की क्रिया है, जो मूल्यों का सृजन करती है। उसका कोई अपना विशेष मूल्य नहीं हो सकता, जैसे गुरुत्वाकर्षण का अपना कोई विशेष वजन नहीं होता, ऊष्मा का अपना कोई विशेष ताप नहीं होता, और विजली में धारा की अपनी कोई विशेष प्रवलता नहीं होती। माल के रूप में जो चीज़ बेची और खरीदी जाती है, वह श्रम नहीं है, वरन श्रम शक्ति है। जैसे ही श्रम शक्ति माल बन जाती है, उसका मूल्य उस श्रम द्वारा निर्धारित होता है, जो सामाजिक उत्पाद की हैसियत से इस माल में सन्निहित है। यह मूल्य उस श्रम के बरावर होता है , जो इस माल के उत्पादन और पुनरुत्पादन के लिए सामाजिक रूप से आवश्यक होता है। उसके मूल्य की जो व्याख्या इस तरह की गयी है, उसके आधार पर श्रम शक्ति का क्रय-विक्रय मूल्य के आर्थिक नियम से तनिक भी असंगत नहीं है। २. रिकार्डो के मूल्य नियम' के अनुसार दो पूंजियां यदि सजीव श्रम की समान माताओं से काम लें और उन्हें समान पारिश्रमिक दें, तो शेष सभी परिस्थितियां यथावत रहने पर वे दोनों समान अवधि में समान मूल्य के माल का उत्पादन करेंगी, और इसी प्रकार वेशी मूल्य अथवा लाभ भी समान मात्रा में उत्पन्न करेंगी। किन्तु वे यदि सजीव श्रम की असमान मात्राओं से काम लें, तो वे समान वेशी मूल्य, अथवा जैसा कि रिकार्डोपंथी कहते हैं, समान लाभ उत्पन्न नहीं कर सकतीं। पर यथार्थ में होता इसका उलटा है। हक़ीक़त है कि समान पूंजियां समान अवधियों में समान औसत लाभों का सृजन करती हैं। उन्होंने सजीव श्रम की कितनी ज्यादा या कम मात्रा काम में लगायी है, इससे कुछ भी सरोकार नहीं होता। अतः यहां मूल्य
- यहां इशारा उस पाण्डुलिपि की ओर है जो आगे चलकर Theorien aber den Mehrivert
के नाम से प्रकाशित हुई। देखें : K. Afarx, Theorien Uber den Mehrvert (Vierter Band des Kapitals), 2. Teil, Berlin, 1959, SS. 7-151. -