पृष्ठ:कार्ल मार्क्स पूंजी २.djvu/३७

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पूंजी के रूपांतरण और उनके परिपथ श्र उसा - 1 . , दूसरे रूप में विद्यमान है; वह द्रव्य रूप या अवस्था में पूंजी मूल्य है- द्रव्य पूंजी है। द्र- मा < अथवा उसका सामान्य रूपद्र मा मालों की खरीदों का जोड़ है, वह सामान्य माल परिचलन की एक क्रिया है। साथ ही, पूंजी के स्वतंत्र परिपथ की एक मंजिल के रूप में, वह पूंजी मूल्य का उसके द्रव्य रूप से उत्पादक रूप में रूपान्तरण भी है। और संक्षेप में, यह द्रव्य पूंजी का उत्पादक पूंजी में रूपान्तरण है। परिपथ के जिस आरेख का विवेचन हम यहां कर रहे हैं, उसमें द्रव्य पूंजी मूल्य का प्रथम निक्षेप बनकर सामने प्राता है, और इसलिए जिस रूप में पूंजी पेशगी लगायी जाती है, वह रूप द्रव्य पूंजी द्वारा व्यक्त होता है। द्रव्य पूंजी के रूप में पूंजी ऐसी अवस्था में होती है, जिसमें वह द्रव्य के कार्य , इस मामले में खरीदारी के एक सार्विक साधन तथा भुगतान के सार्विक साधन के कार्य पूरे कर सके। ( भुगतान की बात उस हद तक कि यद्यपि श्रम शक्ति पहले खरीद ली जाती है, फिर भी उसका भुगतान तव तक नहीं होता, जब तक उसे काम में न लगाया जाये। जिस हद तक उत्पादन साधन वाज़ार में तैयार नहीं मिल जाते , वरन उनके लिए पहले से आदेश करना होता है, उस हद तक द्र- उ सा क्रिया में द्रव्य भी भुगतान के साधन के रूप में काम आता है।) यह क्षमता इस कारण नहीं होती कि द्रव्य पूंजी पूंजी है, वरन इसलिए होती है कि वह द्रव्य है। दूसरी ओर द्रव्य के रूप में पूंजी मूल्य द्रव्य के कार्यों के अलावा और कोई कार्य नहीं कर सकता। जो वात द्रव्य के कार्यों को पूंजी के कार्यों में बदल देती है, वह पूंजी के संचरण में उनकी निश्चित भूमिका और इसलिए पूंजी के परिपथ की जिस मंजिल में ये कार्य सम्पन्न होते हैं, उसका दूसरी मंजिलों से अंतःसम्बन्ध भी है। यहां हम जिस प्रसंग का. विवेचन कर हैं, उसी को उदाहरणस्वरूप ले लीजिये। द्रव्य यहां मालों में परिवर्तित किया जाता है, जिनका संयोग उत्पादक पूंजी का भौतिक रूप प्रस्तुत करता है, और इस रूप में पूंजीवादी उत्पादन प्रक्रिया का परिणाम अभी से अंतर्हित और सम्भाव्य रूप में विद्यमान होता है। एक अंश, जो द्रव्य पूंजी का कार्य करता है, परिचलन की यह क्रिया संपन्न करके एक ऐसा कार्य ग्रहण कर लेता है, जिसमें इसके पूंजीगत लक्षण का लोप हो जाता है, पर द्रव्यगत लक्षण बना रहता है। द्रव्य पूंजी द्र का परिचलन द्र-उसा तथा द्र श्र में विभक्त होता है, अर्थात उत्पादन साधनों की खरीद और श्रम शक्ति की खरीद में। आइये, स्वयं इस आखिरी प्रक्रिया पर ही विचार करें। का अर्थ पूंजीपति द्वारा श्रम शक्ति की खरीद है। श्रम शक्ति के मालिक , मजदूर द्वारा यह श्रम शक्ति. की विक्री भी है ; यहां हम कह सकते हैं कि श्रम की विक्री भी है, क्योंकि मजदूरी के रूप को पूर्वकल्पना कर ली गयी है। खरीदार के लिए जो द्र मा (=द्र-श्र) है , वह , और प्रत्येक विक्री की तरह , बेचनेवाले (मजदूर) के लिए श्र-द्र (= मा-द्र) है। यह उसकी श्रम शक्ति की विक्री है। यह परिचलन की पहली मंजिल अथवा माल का पहला रूपान्तरण है (Buch I, Kap. III, 2a)।* : श्रम के विक्रेता के लिए यह उसके माल द्र- मा<मा श्र में द्रव्य का , 1 '-श्र . 'हिन्दी संस्करण: अध्याय ३, २ क । - सं०