द्रव्य पूंजी का परिपथ ३७ . का द्रव्य में रूपांतरण है। इस तरह से पाया हुअा द्रव्य मजदूर धीरे-धीरे उन मालों को खरीदने के लिए व्यय करता है, जो उसकी ज़रूरतें पूरी करने के लिए दरकार होते हैं, वह उसे उपभोग की वस्तुएं खरीदने में खर्च करता है। इसलिए उस के माल का पूर्ण परिचलन श्र-द्र- मा के रूप में प्रकट होता है, अर्थात प्रथमतः श्र-द्र (=मा -द्र ) और फिर द्र - मा के रूप में ; इस कारण वह मा -द्र-मा के माल के सरल परिचलन के सामान्य रूप में प्रकट होता है। इस प्रसंग में द्रव्य परिचलन का एक अस्थायी साधन मात्र है, वह एक माल से दूसरे माल का विनिमय करने का माध्यम मात्र है। द्र-श्र द्रव्य पूंजी के उत्पादक पूंजी में रूपांतरण का अभिलाक्षणिक क्षण है , क्योंकि यह द्रव्य रूप में पेशगी दिये गये मूल्य के पूंजी में वास्तविक रूपान्तरण की, वेशी मूल्य का सृजन करनेवाले मूल्य में रूपांतरण की अनिवार्य शर्त है। द्र -उसा केवल द्र श्र में खरीदी गयी श्रम की मात्रा का सिद्धिकरण करने लिए ही आवश्यक है, जिसका इस दृष्टिकोण से 'मुद्रा का पूंजी में रूपान्तरण' शीर्षक से खंड १, भाग २ में विवेचन किया गया था। यहां हमें इस बात पर एक दूसरे दृष्टिकोण से भी विचार करना होगा, जिसका संबंध विशेषकर द्रव्य पूंजी के उस रूप से है जिसमें पूंजी अपने को व्यक्त करती है। द्र - श्र को सामान्यतः पूंजीवादी उत्पादन पद्धति का अभिलक्षक माना जाता है। लेकिन ऐसा ऊपर दिये इस कारण से कतई नहीं माना जाता कि श्रम शक्ति की खरीदारी कोई ऐसा क्रय संबंधी इक़रार है, जिसमें माना गया हो कि श्रम शक्ति की कीमत के , मजदूरी के , प्रतिस्थापन के लिए श्रम की जितनी मात्रा आवश्यक है ; उससे अधिक श्रम की मात्रा दी जायेगी, अतः वेशी श्रम दिया जायेगा जो पेशगी मूल्य के पूंजीकरण की बुनियादी शर्त है , अथवा - जो एक ही बात है - वेशी मूल्य के उत्पादन की बुनियादी शर्त है। इसके विपरीत ऐसा उसके रूप के कारण माना जाता है, क्योंकि मजदूरी के रूप में श्रम द्रव्य द्वारा खरीदा जाता है और वह द्रव्य व्यवस्था की अभिलाक्षणिक विशेषता है। और न रूप की असंगति को ही अभिलक्षक माना जाता है। इसके विपरीत असंगति को अनदेखा ही किया जाता है। असंगति यह है कि श्रम का, जो मूल्य का सृजन करनेवाला तत्व है, कोई मूल्य नहीं हो सकता। इसलिए श्रम की किसी निश्चित मात्रा का ऐसा मूल्य नहीं हो सकता, जो उसकी कीमत के रूप में, उसी के समतुल्य द्रव्य की निश्चित मात्रा के रूप में प्रकट हो सके। लेकिन हम जानते हैं कि मजदूरी एक प्रच्छन्न रूप ही है, ऐसा रूप है, जिसमें , उदाहरण के लिए, एक दिन की श्रम शक्ति की कीमत अपने आपको इस श्रम शक्ति द्वारा एक दिन में गतिमान किये गये श्रम की कीमत की तरह प्रकट करती है। इस श्रम शक्ति ने, मान लीजिये , छः घंटों के श्रम से जो मूल्य पैदा किया है, वह इस प्रकार श्रम शक्ति के बारह घंटों के कार्यरत रहने या कार्य के मूल्य के रूप में प्रकट होता है। द्र -श्र तथाकथित द्रव्य व्यवस्था का मुख्य लक्षण, उसकी प्रमुख विशेषता इसलिए माना जाता है कि वहां श्रम उसके मालिक के माल के रूप में प्रकट होता है और इसलिए द्रव्य खरीदार के रूप में सामने आता है -द्रव्य सम्वन्ध (अर्थात मानवीय कार्यकलाप के क्रय- विक्रय ) के कारण माना जाता है। किन्तु द्र के द्रव्य पूंजी में रूपांतरण के बिना और आर्थिक -
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