पृष्ठ:कार्ल मार्क्स पूंजी २.djvu/४४५

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मुल गाजियः पूंजी का पुनस्तादन तथा परिचलन भारत पूजी में नमी परिवर्तित हो सकते हैं कि जब वे उसी मूल्य के I के मालों द्वारा अनियमित हो। मह तो बिनासिद्ध है कि के जिस भाग का lla से विनिमय होना , उग अगदन गायन समाहित होने चाहिए, जो I और II दोनों के उत्पादन में अथवा प्रोने के समादन में प्रवेश कर सकें। यह प्रतिस्थापन II की ओर से एकपक्षीय खरीदारी + अग्नि ही संभव हो सकता है, क्योंकि. ५०० 1 के समूत्र वेशी उत्पाद को, जिसकी हमें प्री परीक्षा करना है, I के अंतर्गत संचय का काम करना है, अतः उसका II मालों से विनिमय नहीं हो सकता। दूसरे शब्दों में 1 एक ही समय उसका संचय करे और उपभोग भी करे, ऐगा नहीं हो सकता। अतः II को बाद में I के हाथ अपने माल की बिक्री से यह द्रव्य वारन पारे बिना १४० के नकद देकर वरीदना होगा। और यह प्रक्रिया प्रत्येक नये वार्षिक उतादन में, जहां तक कि वह विस्तारित पैमाने पर पुनरुत्पादन होता है , लगातार दोहरायी जाती है। इसके लिए II के अंतर्गत द्रव्य का व्रोत कहां है ? उलटे , प्रतीत वही होता है कि II नई द्रव्य पंजी के निर्माण के लिए बहुत ही लाभहीन क्षेत्र है, जो वास्तविक संचय के साथ-साथ होता है और जो पूंजीवादी उत्पादन के अधीन उसे पावश्यक बनाता है और जो प्रारंभ में अपने को वस्तुतः सामान्य अपसंचय के रूप प्रस्तुत करता है। पहले हमारे मामने ३७६ II हैं। श्रम शक्ति के लिए पेशगी दी गयी ३७६ की द्रव्य पूंजी माल II को गरीदारी के जरिये पूंजीपति II के पास परिवर्ती पूंजी की तरह द्रव्य रूप में निरंतर लोट पाती है। प्रारंभ-बिंदु-पूंजीपति के जेब - से चलने और वहीं वापस पाने की यह निरंतर प्रावृत्ति इस चक्र में घूमते द्रव्य में किसी भी तरह बढ़ोतरी नहीं कर देती। इसलिए यह द्रव्य संचय का त्रोत नहीं है। न इन द्रव्य को अपसंचित , वस्तुत: नवीन द्रव्य पूंजी का निर्माण करने के लिए परिचलन से निकाला जा सकता है। लेकिन जरा ठहरिये ! क्या थोड़ा सा मुनाफा कमाने की गुंजाइश यहां नहीं है ? हमें यह न भूलना चाहिए कि वर्ग I के मुकाबले वर्ग II को यह सुविधा है कि मजदूरों को स्वयं अपने द्वारा उत्पादित माल उससे फिर खरीदना होता है। II श्रम शक्ति का ग्राहक और इसके साथ ही अपने द्वारा नियोजित श्रम शक्ति के मालिकों के हाथ वह मालों का विजेता भी है। अतः II: १) मजदूरी को महज़ सामान्य ग्रीसत स्तर से सीधे नीचे गिरा सकता है- और इस बात में वह I के पूंजीपतियों के समान है। इस तरकीब से द्रव्य का परिवर्ती पूंजी के द्रव्य रूप में कार्यशील अंग मुक्त हो जाता है और यदि यह प्रक्रिया निरंतर दोहराई जाती रहे ; तो वह अपसंचय का , और इस प्रकार II में वस्तुतः अतिरिक्त द्रव्य पूंजी का एक सामान्य त्रोत बन सकती है। वेगक हम यहां ठगी से हुए अनियत लाभ की बात नहीं कर रहे हैं, क्योंकि हम यहां पूंजी के सामान्य निर्माण का विवेचन कर रहे हैं। किंतु यह न भूलना चाहिए कि जो सामान्य मजदूरी वालव में दी जाती है (जो ceteric paribus [अन्य परिस्थितियां यथा- वत रहने पर] परिवर्ती पूंजी का परिमाण निर्धारित करती है), वह पूंजीपतियों द्वारा उनकी सहृदयता के कारण नहीं दी जाती , वरन उसे विद्यमान संबंधों के अंतर्गत देना पड़ता है। इससे व्याख्या की उपर्युक्त पद्धति निरस्त हो जाती है। यदि हम यह माने कि ३७६५ II द्वारा व्यय की जानेवाली परिवर्ती पंजी है, तो हमें मिर्फ़ पैदा हुई एक नई समस्या का समाधान करने के 1