पृष्ठ:कार्ल मार्क्स पूंजी २.djvu/५६

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द्रव्य पूंजी का परिपथ २) मार - द्र' ) वह उसी माल को दो बार दिखाता है। दोनों वार वह एक ही माल होता है, जिसमें द्रव्य पहले दौर में परिवर्तित होता है, और दूसरे दौर में वह अधिक द्रव्य में पुनः- परिवर्तित होता है। इस तात्विक भेद के वावजूद दोनों परिचलनों में यह सामान्यता है कि उनके पहले दौर में द्रव्य माल में परिवर्तित होता है, और दूसरे दौर में माल द्रव्य में परिवर्तित होता है, और यह कि पहले दौर में ख़र्च किया हुअा द्रव्य दूसरे दौर में वापस आ जाता है। एक ओर दोनों में यह सामान्यता है कि द्रव्य अपने प्रारंभ विन्दु तक फिर वापस आ जाता है और दूसरी ओर यह कि वापस आनेवाला द्रव्य पेशगी दिये धन से अधिक होता है। इस हद तक द्र मा मा'- द्र' सूत्र द्र – मा - द्र' के सामान्य सूत्र में समाविष्ट होता . मा सा इससे यह निष्कर्ष भी निकलता है कि परिचलन के द्र-मा और मा' द्र' के दोनों रूपान्तरणों में प्रति वार मूल्यों के एकसाथ विद्यमान समान परिमाण एक दूसरे के सामने आते हैं और एक दूसरे को प्रतिस्थापित करते हैं। मूल्य परिवर्तन का सम्बन्ध केवल रूपान्तरण उ से, उत्पादन प्रक्रिया से होता है, जो इस प्रकार परिचलन के केवल रूपात्मक रूपान्तरण की तुलना में पूंजी का वास्तविक रूपान्तरण जान पड़ता है। प्राइये . अब हम सम्पूर्ण गति द्र- मा ... उ ... मा' -द्र', अथवा उसके और विस्तारित रूप द्र मा' ( मा + मा) - द्र' (द्र+द्र) को लेते हैं। यहां पूंजी एक ऐसे मूल्य के रूप में प्रकट होती है, जो परस्पर सम्बद्ध और परस्पर निर्भर रूपान्तरणों की श्रृंखला से गुजरता है ; इस शृंखला के ये रूपान्तरण सम्पूर्ण प्रक्रिया के उतने ही दौर अथवा मंज़िलें हैं। इनमें से दो दौर परिचलन क्षेत्र के अन्तर्गत हैं और एक उत्पादन क्षेत्र के अन्तर्गत। इनमें से प्रत्येक दौर में पूंजी का एक भिन्न रूप होता है और उसी के अनुरूप उसका भिन्न, विशेष कार्य होता है। इस गति की परिधि में पेशगी दिया मूल्य अपने को क़ायम ही नहीं रखता, वरन वृद्धि करता है, परिमाण में बढ़ता है। अन्त में वह आख़िरी मंजिल में उसी रूप को पुनः प्राप्त करता है, जो समूचे तौर पर प्रक्रिया के आरम्भ में उसे प्राप्त था। अतः अपनी सम्पूर्णता में यह प्रक्रिया परिपथों में गति की प्रक्रिया है। अपने परिचलन की विभिन्न मंजिलों में पूंजी मूल्य जो दो रूप धारण करता है, वे द्रव्य पूंजी तथा माल पूंजी के रूप हैं। जिस रूप का सम्बन्ध उत्पादन की मंजिल से है, वह उत्पादक पूंजी का रूप है। जो पूंजी अपने सम्पूर्ण परिपथ के दौरान ये रूप धारण करती है और फिर उन्हें उतार देती है और प्रत्येक रूप धारण करने की अवधि में उस रूप विशेष के अनुसार कार्य करती है, वह प्रौद्योगिक पूंजी है। यहां प्रौद्योगिक शब्द इस अर्थ में लिया गया है कि पूंजीवादी आधार पर चलनेवाली प्रत्येक उद्योग शाखा उसके अन्तर्गत है। इसलिए द्रव्य पूंजी, माल पूंजी और उत्पादक पूंजी ऐसी संज्ञाएं नहीं हैं, जिनसे पूंजी की स्वतन्त्र कोटियों का बोध होता हो , जिनके कार्य उसी तरह भिन्न और स्वतन्त्र उद्योग शाखाओं के भी कार्य होते हों। वे केवल प्रौद्योगिक पूंजी के विशेष कार्यात्मक रूप प्रकट करते हैं जो इन तीनों रूपों को वारी-बारी से धारण करती है। पूंजी अपना परिपथ सामान्य रूप में तभी तक पूरा करती है कि जब तक उसके विभिन्न दौर किसी अवरोध के बिना एक दौर से दूसरे में प्रवेश करते जाते हैं। यदि पूंजी के पहले