६० पूंजी के रूपांतरण और उनके परिपथ .
मूल्य में दूसरी कड़ी मा' -द्र' है। दूसरे शब्दों में प्रारम्भ विन्दु द्र द्रव्य पूंजी है, जिसे स्वविस्तारित होना है। इसका अंतिम विन्दु द्र', स्वविस्तारित द्रव्य पूंजी द्र+द्र है, जहां अपनी सन्तान साय द्र सिद्धिकृत पूंजी बनकर सामने आता है। यह वात उ और मा' के अन्य दो परिपयों से द्र के इस परिपथ की भिन्नता सूचित करती है, और वह भी दो तरह से। एक ओर तो दोनों चरमों के द्रव्य रूप द्वारा। और द्रव्य मूल्य के अस्तित्व का स्वतंत्र और साकार रूप है; वह उत्पाद का ऐसा मूल्य है, जो उसके स्वतंत्र मूल्य रूप में प्रकट होता है, जिसमें माल के उपयोग मूल्य का चिह्न भी शेप नहीं रहा है। दूसरी ओर उ उ का रूप अनिवार्यतः उ' (उ + उ) नहीं बन जाता, और मा' ... मा’ रूप में, दोनों चरमों के बीच कुछ भी अन्तर दिखाई नहीं देता। इसलिए द्र-द्र' सूत्र की यह विशिष्टता है कि एक तरफ़ पूंजी मूल्य उसका प्रारम्भ विन्दु है और विस्तारित पूंजी मूल्य उसका प्रत्यावर्तन बिन्दु है ; जिससे पूंजी मूल्य का पेशगी दिया जाना इस समूची क्रिया का साधन और विस्तारित पूंजी मूल्य उसका साध्य प्रतीत होता है। दूसरी तरफ़ यह सम्बन्ध द्रव्य रूप में, स्वतंत्र मूल्य रूप में प्रकट होता है ; इसलिए द्रव्य पूंजी द्रव्यप्रसू द्रव्य की तरह प्रकट होती है । मूल्य द्वारा वेशी मूल्य का सृजन इस प्रक्रिया के अथ और इति के रूप में ही नहीं, बल्कि दमकते धन के रूप में स्पष्टतः व्यक्त होता है। ४. चूंकि द्र- मा के पूरक तथा अंतिम दौर मा' द्र' के परिणामस्वरूप प्राप्त द्रव्य पूंजी द्र' का रूप पूर्णतः वही होता है, जिसमें उसने अपना पहला परिपय शुरू किया था, इसलिए इस परिपथ से निकलने के साथ वह संवर्धित (संचित ) द्रव्य पूंजी के रूप में उसी परिपथ को फिर से शुरू कर सकती है, यानी द्र' =द्र+द्र और कम से कम वह द्र द्र' रूप में व्यक्त नहीं होती है, जिसमें परिपथ की पुनरावृत्ति में द्र का परिचलन द्र के परिचलन से अलग हो जाता है। अतः उसके एक कालिक रूप में लेने पर द्रव्य पूंजी का परिपथ औपचारिक रूप में केवल स्वविस्तार तथा संचय की प्रक्रिया को ही व्यक्त करता है। उसमें उपभोग केवल उत्पादक उपभोग के रूप में, द्र मा <- द्वारा अभिव्यक्त होता है, और वैयक्तिक पूंजी के इस परिपथ में केवल यही उपभोग सम्मिलित किया जाता है। द्र-श्र श्रमिक के लिए श्र द्र अथवा मा द्र होता है। इसलिए परिचलन .का पहला दौर ही उसका वैयक्तिक उपभोग श्र द्र मा ( निर्वाह साधन ) संपन्न करता है। दूसरा दौर द्र- मा अब वैयक्तिक पूंजी के परिपथ में नहीं आता वरन यह उसकी प्रवर्तक और 'उसकी आधारिका बन जाती है, क्योंकि श्रमिक को और वातें दरकिनार, पहले जिन्दा रहना होता है, इसलिए व्यक्तिगत उपभोग द्वारा उसे अपने को बनाये रखना होता है, ताकि वह बाज़ार में ऐसी सामग्री के रूप में हमेशा रहे, जिसका शोषण पूंजीपति कर सकता है। पर यह व्यक्तिगत उपभोग स्वयं यहां केवल पूंजी द्वारा श्रम शक्ति के उत्पादक उपभोग की एक शर्त के रूप, और इसलिए केवल उसी सीमा तक माना गया है कि जहां तक मजदूर अपने व्यक्तिगत उपभोग द्वारा स्वयं को श्रम शक्ति के तौर पर बनाये रखता है और स्वयं को श्र 'उ सा