उत्पादक पूंजी का परिपथ 1 ! --- . उधार पर चलता है, ठेकेदार को निर्माण कार्य जिस मंज़िल तक पहुंचा है, उसके अनुसार । पेशगी धन मिलता रहता है। इनमें से कोई भी मंजिल भवन नहीं है, वह एक भावी भवन | का यथार्थतः विद्यमान संघटक अंश है। इसलिए अपनी यथार्थता के वावजूद वह समग्र भवन का केवल काल्पनिक अंश है, पर इतना यथार्थ अवश्य है कि उसे प्रतिभूति मानकर ठेकेदार को पेशगौ रकम दी जा सके ( इस विषय पर आगे अध्याय १२ देखें * )। तीसरे, पूंजी मूल्य और वेशी मूल्य की जो गति मा और द्र में संयुक्त रूप में चालू रहती है, वह यदि केवल आंशिक रूप में विच्छिन्न हो जाये (वेशी मूल्य का एक अंश आय के रूप में खर्च न किया जाये ) अथवा विच्छिन्न हो ही नहीं, तो स्वयं पूंजी मूल्य में उसके परिपथ के अन्तर्गत ही उसके पहले कि वह पूरा हो, एक परिवर्तन होता है। हमारे उदाहरण में उत्पादक पूंजी का मूल्य ४२२ पाउंड के वरावर था। यदि वह पूंजी , उदाहरण के लिए, ४८० या ५०० पाउंड के रूप में द्र मा क्रम जारी रखे, तो अपने परिपथ की वादवाली मंजिलों में वह अपने प्रारम्भिक मूल्य के ऊपर ५८ या ७८ पाउंड की वृद्धि साथ लिये आगे बढ़ेगी। इसके साथ-साथ पूंजी के मूल्य के गठन में भी परिवर्तन आ सकता है। मा' - द्र' परिचलन की दूसरी मंजिल और परिपथ १ (द्र द्र') की आखिरी मंज़िल है। हमारे परिपथ में वह दूसरी और मालों के परिचलन में पहली मंज़िल है। - जहां तक परिचलन का सम्बन्ध है, द्र' -मा' द्वारा मा' - द्र' की पूर्ति करना आवश्यक है। किन्तु न केवल यह कि मा-द्र' स्वविस्तार की प्रक्रिया ( इस प्रसंग में उ, पहली मंज़िल का कार्य ) को अपने पीछे छोड़ चुका होता है, बल्कि उसका फल , माल मा भी सिद्धिकृत हो चुका है, इसलिए पूंजी के स्वविस्तार की प्रक्रिया और विस्तारित पूंजी मूल्य व्यक्त करनेवाले मालों के सिद्धिकरण की पूर्ति मा-द्र' में होती हैं। इस प्रकार हमने साधारण पुनरुत्पादन की पूर्वकल्पना कर ली है, अर्थात यह माना है कि द्र- मा पूर्णतः द्र- मा से विच्छिन्न हो जाता है। मा-द्र - मा तथा मा-द्र-मा , ये दोनों ही परिचलन , जहां तक कि उनके सामान्य रूप का सम्बन्ध है, मालों के परिचलन के अन्तर्गत हैं (और इस कारण वे अपने छोरों में कोई मूल्य भेद प्रकट नहीं करते ) । अतः अनगढ़ अर्थशास्त्र के ढंग पर यह मान लेना आसान है कि पूंजीवादी उत्पादन प्रक्रिया मालों का, उपयोग मूल्यों का उत्पादन मात्र है, जो किसी न किसी प्रकार के उपभोग के लिए हैं और इन मालों को पूंजीपति केवल इस उद्देश्य से उत्पादित करता है कि उनके स्थान पर भिन्न उपयोग मूल्योवाले माल प्राप्त हों, अथवा जैसा कि अनगढ़ अर्थशास्त्र भ्रान्तिपूर्वक कहता है, ऐसे मालों से उनका विनिमय कर ले। प्रारम्भ से ही मा’ माल पूंजी की हैसियत से काम करता है और समूची प्रक्रिया का उद्देश्य - धनोपार्जन (वेशी मूल्य का उत्पादन ) किसी भी प्रकार पूंजीपति के वेशी मूल्य (: इसलिए उसकी पूंजी ) में वृद्धि के साथ-साथ उसकी खपत में वृद्धि का अपवर्जन नहीं करता, इसके विपरीत उस उद्देश्य में वह सुस्पष्टतः शामिल ही है। दरअसल पूंजीपति की आय के परिचलन में उत्पादित माल मा (अथवा उत्पादित माल इस पुस्तक के पृष्ठ २११-२१२ देखें। - सं०
पृष्ठ:कार्ल मार्क्स पूंजी २.djvu/७०
दिखावट