पढ़ने योग्य भी हो जाय। यह यात विनयसेन ने जिनसेन से कही होगी। इस सलाह को जिनसेन ने पसन्द करके ही, जान पड़ता है, पायाभ्युदय की रचना की है। . परिडताचार्य योगिराट् नामक एका जैन-पण्डित ने पार्याभ्युदय की टीका लिखी है। मैसोर में एक स्थान श्रवण-घेलतोला नाम का है। ये यहाँ के जैन मठ के गुरु थे। उन्होंने अपनी टीका में इरुदण्डनाथ के घनाये हुए रत-माला नामक कोश का हवाला फई अगह दिया है। ये योगिराद् विजयनगर-नरेश हरिहर के समय में थे। अर्थात् ये शक-संयत १३२१ ( १३६६ ईसवी ) में विद्यमान थे। इस से मालूम हुआ कि पायाभ्युदय के निर्माण के कोई पाँच सी घर्ष याद योगिराद् ने यह टीका यनाई।। इस रोका के अन्त में रीकाकार ने इस काय्य के निम्माण का कारण लिसा है। उसमें १५ श्लोक हैं। उनमें से पहले १६ श्लोक ज्यों के त्यों नीचे गाल किये जाते हैं- श्रीजिनेन्द्रमताम्धीन्दुमलसहयाम्परांशुमान् । पीरसेनामिधागो पाऽयतिपाचार्यपुतयः ॥ १॥ सदियो जिनमेनार्यों यभूप मुनिनायकः । पररुति ग्नेऽद्यापि चन्द्रिका मसरापते ॥२॥ पापुरे मिनेन्दार मिसरोदिन्दिरोपमः। अमोघवर्णमामाभन्महागजी महोदयः ॥ ३॥
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