[कालिदास के विषय में जन पंडितों की एक निर्मुल कल्पना।
तदुदन्तमुदीर्याध कालिदासममानयत् ॥ १४ ॥
श्रीमबेल्गुलविन्ध्याद्रिमोलसहोर्यलीशिनः।
श्रीपादाम्बुजमूलस्था परिडताचार्ययोगिराट् ॥ १५ ॥
तन्मुनीन्द्रमतिप्रीदिप्रकटीकरणोत्सुकः।
स्तव्याख्यां प्रार्थिवश्वके जिनमुन्द्र सूनुना ॥ १६ ॥
संक्षेप में इन पद्यों का मतलय यह है कि कालिदास
नाम के किसी कवि ने मेघदूत नाम का एक काव्य बनाया ।
उसे यह यात से राजाभों को सुनाता फिरा। घहमदो-
म्मस कवि राजा अमोघवर्ष की सभा में भी पाया और
विद्वानों की अवमानना करके उसने राजा को अपना मेघद्त
सुनाया। यह यात विनयसेन को अच्छी न लगी। अतएव
कालिदास के अहङ्कार को पूर्ण करने और सन्मार्ग की उद्दीपना
के लिए, विनयसेन के अनुरोध से, जिनसेनाचार्य ने उस
सभा में कालिदास का परिहास करते हुए कहा कि पुराने
फाप्य की चोरी करने से तुम्हारा यह काव्य रमणीय पुत्रा
है। यह सुनकर कालिदास कुछ दुए और योले कि यदि
पेसा है तो यह पुरानी कविता सुनानो। इस पर जिनसेन
ने कहा कि यह काव्य यहाँ से बहुत दूर, एक नगर में, रक्षा
है। उसे में मँगाता हूँ। प्राट रोज में यह भा जायगा।
तय में सुना दूँगा। यह यात कालिदास और दरवार के
अन्य समासदों ने मंजूर कर ली। इतने में जिनसेन ने