कालिदास।]
प्रवृत्ति नहीं पाई जाती। पद अपनी नायिकानों की काली कुटिल प्रलको और भ्रभागियों में अत्यन्न उलझी हुई नहीं जान पड़ती। कालिदास की रचना इन सय दोषों से यची हुई है। समुचित शब्दों के प्रयोग यौर काय के चमत्कार की ओर ही उनका अधिक धान था।
रामायण और महाभारत में, हम लोग, उनमें वर्णन किये गये पात्रों को धर्म या अधर्म की बुद्धि से उत्त जित होते देखते हैं। उसी तरह कालिदास के पात्रों के वास्य- प्रयोग और, और कार्यों से भी, मानसिक उत्त जना प्रकट होती है । कालिदास के सारे.पान सुख-प्राप्ति के इच्छुक थे। प्रत्येक विषय में वे सुख की कल्पना करते थे। वे प्रमे से उन्मत्त और शोक से विकल हो जाते थे। विषय-वासना में घे एकदम लिप्त थे। सुन्दरता की उन्हें बहुत चाह थी। इन सब बातों पर विचार करने से मालूम होता है कि कालिदास के समय में लोगों की प्राध्यात्मिक शक्ति बहुत कुछ शिथिल हो गई थी। उस शक्ति के यल से आत्मशान प्राप्त करना उनके लिए असम्भव सा हो गया था। इसी कारण वे प्रत्येक ज्ञानेन्द्रिय की सहायता से, ईश्वर-माप्ति की इच्छा से ही, पेसा करते थे।
यह समय धैष्णव-धर्म के विकास का था। इस
धर्म से सम्बन्ध रखनेवाले पुराणों की रचना हो रही थी।