पृष्ठ:कालिदास.djvu/१५५

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[ कालिदास के प्रग्धों की आलोचना ।

जाते हैं। फालिदास की शकुन्तला, प्रियंदा और अनसूया के स्वभाष में क्या भेद है। उनके स्वभाव-चित्रण में कवि ने कौनसी खूवियाँ रक्खी हैं? उनसे क्या का शिक्षा मिलती है ? ये चाते सय लोगों के ध्यान में नहीं पा सकती। अतएप घे उनसे लाभ उठाने से वञ्चित रह जाते हैं। इसे थोड़ी हानि न समझिए। इससे कवि के उद्देश का अधिकांश ही व्यर्थ जाता है। योग्य समालोचक समाज को इस हानि से पचाने की चेष्टा करता है। इसीसे साहित्य में उसका काम इतने अादर की दृएि से देखा जाता है इसीसे साहित्य की उन्नति के लिए उसकी इतनी आवश्यकता है।

अन्य भाषाओं के साहित्य-सेवियों ने अपने ही देश के कवियों के ग्रन्थों की नहीं, किन्तु विदेशी कवियों तक के कार्यो की समालोचनायें लिखकर अपने साहित्य का कल्याण-साधन किया है। परन्तु अपनी देश-भाषा में भारत के कवि-कुल-चक्र-चूडामणि के समय अन्यों की विस्तृत समालोचना का अबतक प्रभाव था। यो तो कालिदास के को प्रन्यों की अच्छी अच्छी समालोचनायें पगला, मराठी और तैलनी भाषाओं में निकल चुकी हैं। कवि-कुलगुरु के काव्यों और नाटकों की समष्टि रूप से भी दो एक समालोच. नायें हुई है। पर घे विस्तृत नहीं, उनमें प्रत्येक पात पर

विचार नहीं किया गया। थोड़े ही में मुख्य मुख्य याते कह

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