कालिदास
पाय में अटल बियाप्त, मादपिणी पयस्विनी धेनु की परिचा, मिक्षार्थी अतिथि की अमिलापूर्ति के लिए घरणीपनि राजा की व्याकुलता, लोकरजन और राजसिंहासन निकलङ्क रमने के लिए नृपति के द्वारा अपनी प्राणोपमा. पती का निर्यासनरूपी आत्म-त्याग आदि अनेक लोक- हितकर और समाज-शिक्षोपयोगी विषयों से रघुवंश प्रलं. कृताहै।
विद्या-भूषण महाशय की इस समालोचना, इस विवेचना, इस मोद्घाटन से पाठकों को मालूम हो जायगा कि क्यों रघुवंश सर्वोत्तम काव्य माना जाता है और कालिदास को क्यों कविकुलगुरु की पदवी मिली है। ऐसे समालोचक का आसन कितना ऊँचा है और साहित्य की उन्नति के लिए उसकी कितनी आवश्यकता है, यह बात भी इससे अच्छी तरह विदित हो जायगी। जो कौमुदी के कीड़े और महा- भाष्य के मताज कालिदास का एक भी शब्द-स्थलन नहीं सह सकते, अतएव उसे सही सिद्ध करने के लिए पाणिनि, पतअलि, और कात्यायन की भी उक्तियों पर हरताल लगाने की चेष्टा करते हैं उन्हें विद्याभूषण जी का प्रासन कदापि प्राप्त नहीं हो सकता। कालिदास की कीर्ति की रक्षा उनके दो-चार-शब्द-स्खलनों को शुद्ध सिद्ध करने की चेष्टा से नहीं हो सकती। उसकी रक्षा ऐसी समालोचनाओं से हो
-सकती है जैसी विद्या-भूषण जी ने प्रकाशित की है।