सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:कालिदास.djvu/१७१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

[कालिदास के ग्रन्पों की आलोचना ।

अभिमान-शाकुन्तल के विषय में श्रीयुत राजेन्द्रनाथ- जी ने बहुत कुछ लिखा है। उसकी समालोचना से उन्होंने अपनी पुस्तक के सौ पृष्ठों से भी अधिक खर्च किये हैं। उनकी सम्मति का सारांश यह है-

अभिज्ञानशाकुन्तल कालिदास की विश्वतोमुखी प्रतिमा, ब्रह्माण्डव्यापिनी कल्पना और सर्वातिशायिनी रचना की सर्वोत्तम कसौटी है। विक्रमोर्वशी और मालविकाग्नि- मित्र में कवि मे जिन दृश्यों और दिव्य मूर्तियों का प्रकन किया है ये सय तो शाकुन्तल में हैं ही। परन्तु उसमें ऐसी और भी अनेक मूर्तियाँ और अनेक चीज हैं जिनका मन ही मन केवल अनुभव किया जा सकता है, दूसरों को उनका अनुभव नहीं कराया जा सकता। ये केवल आत्मसंवैध है; भाग को सहायता से घे दूसरे पर नहीं प्रकट की जा सकती। इसीसे.अभिज्ञान शाकुन्तल कवि-सृष्टि का चरम उत्कर्ष है.। सहदय जनों ने यथार्थ ही कहा है- “कालिदासस्य सर्वस्वमभिज्ञान-शकुन्तलम् । अभिज्ञान-शाकुन्तल कालिदास का सळख है, उनकी अपार्थिव कल्पनारूपिणी उधान-घाटिका की अमृतमयो पारिजात-लता है। धर्म और प्रेम इन दोनों के सम्मेलन से जगत् में जिस मधुर प्रानन्द की उत्पत्ति होती है, अभिज्ञान शाकुन्तल-रूपी स्वच्छ ।

दर्पण में उसीका प्रतिविम्ब देखने को मिलता है। शकुन्तला

१६१