पृष्ठ:कालिदास.djvu/१८२

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कालिदास ।]

प्रसार-गुण से भोतमोत भर दिया है। यही सोचकर उन्होंने इस काम की रचना चैवी रीति में की है-घुन गुनकर सरल भोर कोमल राणपरे है। लम्बे सो समासों को पास तक नही पटकने रिया।

देयताभो, पामयों और मानयों को छोड़कर कवि- कुल-गुरु में इस काम्य में एक यक्ष को मायक बनाया है, इसका कारण है। यतों के राजा कुरेर हैं। वे धनाधिप हैं। शदियों और सिरियों उनकी दासियों है। सांसारिक सुन, धन की दो यौलत, प्राप्त होते हैं। जिनके पास घन मही ये इन्द्रियजन्य सुखों का यथेष्ट मनुमय नहीं कर सकते। कुवेर के अनुचर, कर्मचारी और पदाधिकारी सर यक्ष हो है। मतपय कुबेर के ऐश्वर्य का पोड़ा बहुत माग उन्हें भी अयश्य ही प्राप्त होता है। इससे जिस यक्ष का वर्णन मेघदूत में है उसके ऐश्वर्यवान और वैभव-सम्पन्न होने में कुछ भी सन्देह नहीं। उसके घर और उसकी पत्नी मादि के वर्णन से यह पात अच्छी तरह साबित होती है। निर्धन होने पर भी प्रेमी जनों में पति-पत्नी सम्बन्धी प्रेम की मात्रा कम नहीं होती। फिर, जो जम्म ही से धन-सम्पन है--जिसने लड़कपन ही से नाना प्रकार के मुख-मोग किये है-उसे पनी-वियोग होने से कितना दुःख, कितनी दृश्य-

प्यया, कितना शोक सन्ताप हो सकता है, इसका अनुमान

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