पृष्ठ:कालिदास.djvu/२१

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[कालिदास का श्राविर्भाव-काल । (२.) या भाति लक्ष्मी वि मन्दरस्था __ यथा प्रदोषेषु च सागरस्था। तथैव तायेषु च पुष्करस्था राज सा चार निशाकरस्था। (३) हंसो यथाराजत पञ्जरस्थः सिंहो यथा मन्दरकन्दरस्थः । धीरो यथा गर्वितकुअरस्थ- चन्द्रोऽपि यमाज तयाम्बरसः ।। यह धाल्मीकि की कविता है। अब यदि श्राप इमे ईसा से दो-सौ वर्ष की पुरानी मानें तो भी श्रापको यह कहने की मुतलक जगह नहीं कि कालिदास के समय में विशुद्ध, परिमार्जित, और पालद्वारिक कविता नहीं लिम्बी आनी पी। पास्मोकि की गवाही हज़ार शिला-लेपों की गवाही से फम विश्वसनीय नहीं मानी जा सकती। पाल्मीकि फी कविता के पूर्योवृत नमूने कैसे सरस, कैसे सालदार और फैसे परिमार्जित है, यह तो आपको बताने की जरूरत ही नहीं। यदि कालिदास की स्थिति पाँचय शतक के प्रारम्भ में मान ली जाय तो या उस समय या उसके उत्तर काल में कालिदास की ऐसी कविता और भी किसी को मात है। यदि प्रम-ग्राम से परिमार्जित संरहत की उन्नति मानी जाय तो पाँचय शतक के याद तो कालिदास की कविता से