[कालिदास की दिखाई दुई प्राचीन भारत की एक झलक ।
हार्दिक इच्छा है कि मैं पत्र-पुष्परूपी थोडीसी पूजा प्राप की फरूं।"
घरतन्तु-"वत्स! तुमने मेरे श्राश्रम में इतने दिन तक रहकर जो मेरी सेवा-शुश्रूषा की है उसीको मैं सयसे पड़ी गुरु-दक्षिणा समझता हूँ। वही क्या कम है ?"
कोत्स-"नहीं प्राचार्य्य ! कुछ आक्षा तो अवश्य ही दीजिए । कृपा कीजिए । मेरा जी नहीं मामता । "
परतन्तु-"कौत्स ! दक्षिणा की अपेक्षा शिष्य की भक्ति मुझे विशेष सन्तोषदायिनी है। उसके मुकायले में दक्षिणा कोई चीज़ नहीं। तुमसे मैं कुछ नहीं चाहता।
कौत्स-"महाराज ! आपको मेरा अनुरोध मानना हो पड़ेगा। मुझे अपना सेवक समझकर कुछ अपने मैं ह से जरूर कहिए।"
शिष्य की इस हठ को देखकर प्राचार्य का महा- सागर-सटश शान्त चित्त भी क्षम्ध हो उठा-
“अतिशय रगड़ करे जो कोई-
अनल भकट चन्दन ते होई .
उन्हे रोप हो पाया। उन्हें कौन्स की गरीबी का
कुछ भी सयाल न रहा। ये योले-"अच्छी पात है। न गुरुत