पृष्ठ:कालिदास.djvu/२२८

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कालिदास]

दक्षिणा दिये यिना जो घर नहीं जाना चाहता तो अय देकर ही जाना । मैंने तुझे चौदह विद्या पढ़ाई हैं। अतएव एक एफ विद्या के यदले एक एक करोड़ रुपया मुझे लादे।"

फोरस इस प्राशा को सुनकर जरा भी नहीं घयराया । उसने-"जो श्राशा" कहकर गुरु को प्रणाम किया और यहाँ से चल दिया। जिस वालण-कुमार के पास कौपीन, कमण्डलु और पलाशदएड के सिवा और कुछ नहीं था उसने चौदह करोड़ प्रशर्फियाँ अपने विचा-गुरु को देने की हद प्रतिक्षा की।

जरा इस घटना पर ध्यान दीजिए । यरसन्तु मे कौत्स को परसों पढ़ाया-कौन जाने पीस वर्ष पढ़ाया, या पञ्चीस घर्ष या इस से भी अधिक-पढ़ाया ही नहीं, अपने घर रक्खा, भोजन-वन भी दिया और बीमार होने पर मुताधिश-स्नेह से उसकी रक्षा भी की। और इसके बदले में अापने पाया क्या ? केवल शिष्य भक्ति! उसीको आपने फीस समझी, उसीको घोडिंग का सर्च, उसीको सप कुछ। यह तो हुग्रा प्राचार्य का दाल। अय शिष्य को पिए। यह भक्ति-दान से सन्तुष्ट नह।। यह यथा-शक्ति कुछ और भी देना चाहता है। विना दक्षिणा के प्राचार्य के प्राधम से घर जाने के लिए उसका पैर ही नहीं उठता। और जय

उससे चौदह करोड़ मांगा जाता है तप पह अपनी

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