[कालिदास को दिखाई हुई प्राचीन भारत की एक झलक ।
आप हमारे परम पूज्य है। अवएव सिर्फ आपके प्रागमन से ही मुझे विशेष प्रानन्द नहीं प्राप्त हो सकता। यदि श्राप दया करके मुझसे कुछ सेवा भी लें तो अवश्य मुझे विशेष श्रानन्द हो सकता है । अतएव श्राप मेरे लिए कुछ काम बतलायें कुछ तो आशा करें। हाँ, भला यह तो कहिए कि आपने जो मुझ पर यह कृपा की है यह आपने अपनेही मन से की है या गुरु की प्राशा से, घन से इतनी दूर मेरे पास पाने का कारण क्या ?
इस विस्तृत कुशल-प्रश्नावली के समाप्त होने पर कौत्स ने कहा- __ "राजन् ! हमारे पाश्रम में सय प्रकार कुशल है। हमारे तपश्चरण में कोई विघ्न नहीं; आश्रम-पादप खूब अच्छी दशा में है; जल की कमी नहीं; अन्न काफी है; पश्वादिकों का कोई उपद्रव नहीं। नापके राजा होते, भला, हम लोगों को कभी स्वप्न में भी फट हो सकता है । सूर्य के मध्य आकाश में स्थित रहते, मजाल है जो रात्रिसम्भूत अन्धकार अपना मुँह दिखाने का हौसला करे ! रहा मेरे आने का फारण, सो मैं गुरु के लिए आपसे कुछ माँगने आया था । परन्तु में देर से श्राया । आपसे मांगने का समय जाता रहां। आपके ये मिट्टी के पात्र इसके प्रमाण हैं। आप प्रसन्न
रहें। अब मैं आपसे इस विषय में कुछ नहीं कहना चाहता।