किसी भाषा का इतिहास लिखना मानो उसके समग्र साहित्य का मन्थन करना है। संस्कृत साहित्य अगाध है। अब तक उसकी थाह नहीं मिली। अतएव ऐसे साहित्य का इतिहास लिखना और भी कठिन काम है। क्योंकि इतिहास लिखने में सारे साहित्य का पूरा पूरा ज्ञान होना चाहिए । इतिहास-लेखक को वेद, येदाङ्ग, शास्त्र, पुराण, स्मृति, तन्त्र, काव्य, साहित्य आदि सभी विषयों का अच्छा ज्ञाता होना चाहिए। जिस विषय को वह जानता ही नहीं उस पर वह लिखेगा ? इसीसे संस्कृत का इतिहास लिखना बहुत बड़ी विद्वत्ता और बहुत अधिक परिश्रम-शीलता का काम है। फिर, यदि यही काम किसी 'विदेशी जर्मन या अँगरेज़ को करना पड़े तो उसकी फठिनता सौगुनी अधिक यढ़ गई समझनी चाहिए। परन्तु इन सब कठिनाइयों को झेलकर उर्मन-पण्डित मैक्समूलर और घेवर ने संस्कृत का इतिहास लिख डाला। उनका इतिहास दोप-पूर्ण ही क्यों न हो, अपूर्ण ही क्यों न हो, ये प्रशंसा-पात्र ज़रूर है। हम भारतवासियों से जो काम न हुया यह उन्होंने कर दिया, यही क्या कम है ? मनुष्य से भूल होती है। इन विद्वानों ने यदि इतिहास लिखने में भूले को हो, या भ्रम-वश कुछ बाते श्राक्षेप-योग्य लिख दी हों, तो भारतीय विद्वान्, यदि कर सके तो, उनका संशोधन कर
है। हर्ष की यात है कि दक्षिण के एक-याध पण्डित ने