पृष्ठ:कालिदास.djvu/८

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कालिदास ।]
 

किये जा रहे हैं। जैसे जैसे ये संस्कृत में पारदर्शिता प्राप्त करते जाते हैं वैसे वैसे वे इस बात के अधिक कायल होते जाते हैं कि विद्या और विज्ञान में पाश्चात्य देश हिन्दुस्तान के कितने ऋणी हैं। इस विषय में जर्मनी के पण्डित श्री हैं। उनको संस्कृत से बड़ा प्रेम है। जर्मनी के दस-पन्द्रह कालेजों में संस्कृत-भाषा के अध्यापन का प्रबन्ध है। यहाँ से आज तक सैकड़ों नहीं, हजारों संस्कृत के अन्य टीका, टिप्पणी और जर्मन-भाषानुवाद-सहित प्रकाशित हुए हैं। कई सामयिक पुस्तके यहाँ से ऐसी निकलती हैं जिनमें सिर्फ संस्कृत-ग्रन्थ और संस्कृत-साहित्य-सम्बन्धी लेख रहते हैं । यहाँ संस्कृत के अनन्त दुप्पाप्य ग्रन्थ सुरक्षित हैं। उनकी नामावली देखकर उनके असंख्येयत्व और महत्व के ख़याल से मन याश्चर्य-सागर में मग्न हो जाता है। यद्यपि इस देश में अँगरेजों का आधिपत्य है, और दो-डेढ़ सौ वर्षों से है, तथापि संस्कृत का पुनरुज्जीवन करने के लिये उनकी अपेक्षा जर्मनीवाले ही अधिक प्रयनशील है। इस यात को देखकर जान पड़ता है कि इस देश से जर्मनी का सम्बन्ध, इस विषय में, अधिक है, इंग्लैंड का कम। पयोंकि जर्मनी में कितनी ही जगह संस्कृत भाषा की शिक्षा का प्रबन्ध है, हग्लैंड में सिर्फ ग्राम्सफर्ड में। जर्मनी में इस समय भी दस-बीस संस्थत मिलेंगे, इंग्लैंड में सिफ दो ही चा।